11 May, 2016

तुम्हें ख़तों में आग लगाना आना चाहिए



उन दिनों मैं एक जंगल थी। दालचीनी के पेड़ों की। जिसमें आग लगी थी। 

और ये भी कि मैं किसी जंगल से गुज़र रही थी। कि जिसमें दालचीनी के पेड़ धू धू करके जल रहे थे। मेरे पीछे दमकल का क़ाफ़िला था। आँखों को आँच लग रही थी। आँखों से आँच आ रही थी। चेहरा दहक रहा था। कोई दुःख का दावनल था। आँसू आँखों से गिरा और होठों तक आने के पहले ही भाप हो गया। उसने सिगरेट अपने होठों में फँसायी और इतना क़रीब आया कि सांसें उलझने लगीं। उसकी साँसों में मेरी मुहब्बत वाले शहर के कोहरे की ठंढ और सुकून था। हमारे होठों के बीच सिगरेट भर की दूरी थी। सिगरेट का दूसरा सिरा उसने मेरे होठों से रगड़ा और चिंगरियाँ थरथरा उठी हम दोनों की आँखों में। मैंने उसकी आँखों में देखा। वहाँ दालचीनी की गंध थी। उसने पहला कश गहरा लिया। मुझे तीखी प्यास लगी। 

वो हँसा। इतना डर लगता है तो पत्थर होना था। काग़ज़ नहीं। 

कार के अंदर सिगरेट का धुआँ था। कार के बाहर जंगल के जलने की गंध। लम्हे में छुअन नहीं थी। गंध से संतृप्त लम्हा था। मैंने फिर से उसकी आँखें देखीं। अंधेरी। अतल। दालचीनी की गंध खो गयी थी। ये कोई और गंध थी। शाश्वत। मृत्यु की तरह। या शायद प्रेम की तरह। आधी रात की ख़ुशबू और तिलिस्म में गमकती आँखें। गहरी। बहुत गहरी। दिल्ली की बावलियाँ याद आयीं जिनमें सीढ़ियाँ होती थीं। अपने अंधेरे में डूब कर मरने को न्योततीं।

वो आग का सिर्फ़ एक रंग जानता था। सिगरेट के दूसरे छोर पर जलता लाल। उसने कभी ख़त तक नहीं जलाए थे। उसे आग की तासीर पता नहीं थी। सिगरेट का फ़िल्टर हमेशा आग को उसके होठों से एक इंच दूर रोक देता था। इश्क़ की फ़ितरत पता होगी उसे? या कि इश्क़ एक सिगरेट थी बस। वो भी फ़िल्टर वाली। दिल से एक इंच दूर ही रुक जाती थी सारी आग। मुझे याद आए उसकी टेबल पर की ऐश ट्रे में बचे हुए फिल्टर्स की। कमरे में क़रीने से रखे प्रेमपत्रों की भी। लिफ़ाफ़े शायद आग बचा जाते हों। किसी सुलगते ख़त को चूमा होगा उसने कभी? कभी होंठ जले उसके? कभी तो जलने चाहिए ना। मेरा दिल किया शर्ट के बटन खोल उसके सीने पर अपनी जलती उँगलियों से अपना नाम लिख दूँ। तरतीब जाए जहन्नुम में।

कारवाँ रुका। दमकल से लोग उतरे। बड़ी होज़ पाइप्स से पानी का छिड़काव करने लगे। पानी के हेलिकॉप्टर भी आ गए तब तक। मुझे हल्की सी नींद आ गयी थी। एक छोटी झपकी बस। जितनी जल्दी नहीं बुझनी चाहिए थी आग, उतनी जल्दी बुझ गयी। मुझे यक़ीन था ऐसा सिर्फ़ इसलिए था कि वो साथ आया था। समंदर। मैंने सपने में देखा कि इक तूफ़ानी रात समंदर पर जाते जहाज़ों के ज़ख़ीरे पर बिजली गिरी है। मूसलाधार बारिश के बावजूद आग की लपटें आसमान तक ऊँची उठ रही थीं। होठों पर नमक का स्वाद था। कोई आँसू था या सपने के समंदर का नमक था ये?

क्या समंदर किनारे दालचीनी का जंगल उग सकता है? अधजले जंगल की कालिख से आसमान ज़मीन सब सियाह हो गयी थी। सब कुछ भीगा हुआ था। इतनी बारिश हुयी थी कि सड़क किनारे गरम पानी की धारा बहने लगी। कुछ नहीं बुझा तो उसकी सिगरेट का छोर। मैंने उसे चेन स्मोकिंग करते आज के पहले नहीं देखा था कभी। लेकिन इस सिगरेट की आग को उसने बुझने नहीं दिया था। सिगरेट के आख़िरी कश से दूसरी सिगरेट सुलगा लेता। 

मैंने सिगरेट का एक कश माँगने को हाथ बढ़ाया तो हँस दिया। तुम तो दोनों तरफ़ से जला के सिगरेट पीती होगी। छोटे छोटे कश मार के। बिना फ़िल्टर वाली, है ना? मैं नहीं दे रहा तुम्हें अपनी सिगरेट। 

बारिश में भीगने को मैं कार के बाहर उतरी थी। सिल्क की हल्की गुलाबी साड़ी पर पानी में घुला धुआँ छन रहा था। मैं देर तक भीगती रही। इन दिनों के लिए प्रकृति को माँ कहा जाता है। सिहरन महसूस हुयी तो आँखें खोली। दमकल जा चुका था। हमें भी वापस लौटना था अब। उसके गुनगुनाने की गंध आ रही थी मेरी थरथराती उँगलियों में लिपटती साड़ी के आँचल में उलझी उलझी। जूड़ा खोला और कंधे पर बाल छितराए तो महसूस हुआ कि दालचीनी की आख़िरी गंध बची रह गयी थी जूड़े में बंध कर  लेकिन अब हवा ने उसपर अपना हक़ जता दिया था। उसने मुट्ठी बांधी जैसे रख ही लेगा थोड़ी सी गंध उँगलियों में जज़्ब कर के। 
सब कुछ जल जाने के बाद नया रचना पड़ता है। शब्दबीज रोपने होते हैं काग़ज़ में।

मैंने उसे देखा। 
‘प्रेम’

उसने सिर्फ़ मेरा नाम लिया।
‘पूजा’ 

08 May, 2016

शीर्षक कहानी में दफ़्न है


आप ऐसे लोगों को जानते हैं जो क़ब्र के पत्थर उखाड़ के अपना घर बनवा सकते हैं? मैं जानती हूँ। क्यूँ जानती हूँ ये मत पूछिए साहब। ये भी मत पूछिए कि मेरा इन लोगों से रिश्ता क्या है। शायद हिसाब का रिश्ता है। शायद सौदेबाज़ी का हिसाब हो। इंसानियत का रिश्ता भी हो सकता है। यक़ीन कीजिए आप जानना नहीं चाहते हैं। किसी कमज़ोर लम्हे में मैंने क़ब्रिस्तान के दरबान की इस नौकरी के लिए मंज़ूरी दे दी थी। रूहें तो नहीं लेकिन ये मंज़ूरी ज़िंदगी के हर मोड़ पर पीछा करती है। 

मैं यहाँ से किसी और जगह जाना चाहती हूँ। मैं इस नौकरी से थक गयी हूँ। लेकिन क़ब्रिस्तान को बिना रखवाले के नहीं छोड़ा जा सकता है। ये ऐसी नौकरी है कि मुफ़लिसी के दौर में भी लोग मेरे कंधों से इस बोझ को उतारने के लिए तैय्यार नहीं। इस दुनिया में कौन समझेगा कि आख़िर मैं एक औरत हूँ। मानती हूँ मेरे सब्र की मिसाल समंदर से दी जाती है। लेकिन साहब इन दिनों मेरा सब्र रिस रहा है इस मिट्टी में और सब्र का पौधा उग रहा है वहाँ। उस पर मेरे पहले प्रेम के नाम के फूल खिलते हैं। क़ब्रिस्तान के खिले फूल इतने मनहूस होते हैं कि मय्यत में भी इन्हें कोई रखने को तैय्यार नहीं होता। 

मुझे इन दिनों बुरे ख़्वाबों ने सताया हुआ है। मैं सोने से डरती हूँ। बिस्तर की सलवटें चुभती हैं। यहाँ एक आधी बार कोई आधी खुदी हुयी क़ब्र होती है, मैं उसी नरम मिट्टी में सो जाना पसंद करती हूँ। ज़मीन से कोई दो फ़ीट मिट्टी तरतीब से निकली हुयी। मैं दुआ करती हूँ कि नींद में किसी रोज़ कोई साँप या ज़हरीला बिच्छू मुझे काट ले और मैं मर जाऊँ। यूँ भी इस पूरी दुनिया में मेरा कोई है नहीं। जनाज़े की ज़रूरत भी नहीं पड़ेगी। मिट्टी में मुझे दफ़ना दिया जाएगा। इस दुनिया को जाते हुए जितना कम कष्ट दे सकूँ उतना बेहतर है। 

मुझे इस नौकरी के लिए हाँ बोलनी ही नहीं चाहिए थी। लेकिन साहिब, औरत हूँ ना। मेरा दिल पसीज गया। एक लड़का था जिसपर मैं मरती थी। इसी क़ब्रिस्तान से ला कर मेरे बालों में फूल गूँथा करता था। दरबान की इस नौकरी के सिवा उसके पास कुछ ना था। उसने मुझसे वादा किया कि दूसरे शहर में अच्छी नौकरी मिलते ही आ कर मुझे ले जाएगा। और साहब, बात का पक्का निकला वो। ठीक मोहलत पर आया भी, अपना वादा निभाने। लेकिन मेरी जगह लेने को इस छोटे से क़स्बे में कोई तैय्यार नहीं हुआ। अब मुर्दों को तन्हा छोड़ कर तो नहीं जा सकती थी। आप ताज्जुब ना करें। दुनिया में ज़िंदा लोगों की परवाह को कोई नहीं मिलता साहब। मुर्दों का ख़याल कौन रखेगा।

कच्ची आँखों ने सपने देख लिए थे साहब। कच्चे सपने। कच्चे सपनों की कच्ची किरचें हैं। अब भी चुभती हैं। बात को दस साल हो गए। शायद उम्र भर चुभेगा साहब। ऐसा लगता है कि इन चुभती किरिचों का एक सिरा उसके सीने में भी चुभता होगा। मैंने उसके जैसी सच्ची आँखें किसी की नहीं देखीं इतने सालों में। बचपन से मुर्दों की रखवाली करने से ऐसा हो जाता होगा। मुर्दे झूठ नहीं बोलते। मैं भी कहाँ झूठ कह पाती हूँ किसी से इन दिनों। मालूम नहीं कैसा दिखता होगा। मेरे कुछ बाल सफ़ेद हो रहे हैं। शायद उसके भी कुछ बाल सफ़ेद हुए हों। कनपटी पर के शायद। उसके चेहरे की बनावट ऐसी थी कि लड़कपन में उसपर पूरे शहर की लड़कियाँ मर मिटती थीं। इतनी मासूमियत कि उसके हिस्से का हर ग़म ख़रीद लेने को जी चाहे। बढ़ती उम्र के साथ उसके चेहरे पर ज़िंदगी की कहानी लिखी गयी होगी। मैं दुआ करती हूँ कि उसकी आँखों के इर्द गिर्द मुस्कुराने से धुँधली रेखाएँ पड़ने लगी हों। उसने शायद शादी कर ली होगी। बच्चे कितने होंगे उसके? कैसे दिखते होंगे। क्या उसके बेटे की आँखें उसपर गयी होंगी? मुझे पूरा यक़ीन है कि उसके एक बेटा तो होगा ही। हमने अपने सपनों में अलग अलग बच्चों के नाम सोचे थे। उसे सिर्फ़ मेरे जैसी एक बेटी चाहिए थी। मेरे जैसी क्यूँ…मुझमें कुछ ख़ूबसूरत नहीं था लेकिन उसे मेरा साँवला रंग भी बहुत भाता था। मेरी ठुड्डी छू कर कहता। एक बेटी दे दो बस, एकदम तुम्हारे जैसी। एकदम तुम्हारे जैसी। मैं लजाकर लाल पड़ जाती थी। शायद मैंने किसी और से शादी कर ली होती तो अपनी बेटी का नाम वही रखती जो उसने चुना था। ‘लिली’। अब तो उसके शहर का नाम भी नहीं मालूम है। कुछ साल तक उसे चिट्ठियाँ लिखती रही थी मैं। फिर जाने क्यूँ लगने लगा कि मेरे ख़तों से ज़िंदगी की नहीं मौत की गंध आती होगी। मैं जिन फूलों की गंध के बारे में लिखती वे फूल क़ब्र पर के होते थे। गुलाबों में भी उदासियाँ होती थीं। मैं बारिश के बारे में लिखती तो क़ब्र के धुले संगमरमरी पत्थर दिखते। मैं क़ब्रिस्तान के बाहर भीतर होते होते ख़ुद क़ब्रिस्तान होने लगी थी। 

दुनिया बहुत तन्हा जगह है साहब। इस तन्हाई को समझना है तो मरे हुए लोगों को सुनना कभी। मरे हुए लोग कभी कभी ज़िंदा लोगों से ज़्यादा ज़िंदा होते हैं। हर लाश का बदन ठंढा नहीं होता। कभी कभी उनकी मुट्ठियाँ बंद भी होती हैं। आदमी तन्हाई की इतनी शिकायत दीवारों से करता है। इनमें से कुछ लोग भी क़ब्रिस्तान आ जाया करें तो कमसे कम लोगों को मर जाने का अफ़सोस नहीं होगा। मुझे भी पहले मुर्दों से बात करने का जी नहीं करता था। लेकिन फिर जैसे जैसे लोग मुझसे कटते गए मुझे महसूस होने लगा कि मुर्दों से बात करना मुनासिब होगा। यूँ भी सब कितनी बातें लिए ही दफ़्न हो जाते हैं। कितनी मुहब्बत। कितनी मुहब्बत है दुनिया में इस बात पर ऐतबार करना है तो किसी क़ब्रिस्तान में टहल कर देखना साहिब। मर जाने के सदियों बाद भी मुर्दे अपने प्रेम का नाम चीख़ते रहते हैं।

मैं भी बहुत सारा कुछ अपने अंदर जीते जीते थक गयी थी। सहेजते। मिटाते। दफ़नाते। भुलाते। झाड़ते पोछते। मेरे अंदर सिर्फ़ मरी हुयी चीज़ें रह गयी हैं। कि मेरा दिल भी एक क़ब्रिस्तान है हुज़ूर। मौत है कि नहीं आती। शायद मुझे उन सारे मुर्दों की उम्र लग गयी है जिनकी बातें मैं दिन दिन भर सुना करती हूँ। रात भर जिन्हें राहत की दुआएँ सुनाती हूँ। हम जैसा सोचते हैं ज़िंदगी वैसी नहीं होती है ना साहेब। मुझे लगा था मुर्दों से बातचीत होगी तो शायद मर जाने की तारीख़ पास आएगी। शायद वे मुझे अपनी दुनिया में बुलाना चाहेंगे जल्दी। लेकिन ऊपरवाले के पास मेरी अर्ज़ी पहुँचने कोई नहीं जाता। सब मुझे इसी दुनिया में रखना चाहते हैं। झूठे दिलासे देते हैं। मेरे अनगिनत ख़तों की स्याही बह बह कर क़ब्रों पर इकट्ठी होती रहती है। वे स्याही की गंध में डूब कर अलग अलग फूलों में खिलते हैं। क़ब्रिस्तान में खिलते फूलों से लोगों को कोफ़्त होने लगी है। मगर फूल तो जंगली हैं। अचानक से खिले हुए। बिना माँगे। मौत जैसे। इन दिनों जब ट्रैफ़िक सिग्नल पर गाड़ियाँ रुकी रहती हैं तो वे अपनी नाक बंद करना चाहते हैं लेकिन लिली की तीखी गंध उनका गिरेबान पकड़ कर पहुँच ही जाती है उनकी आँखें चूमने। 

आप इस शहर में नए आए हैं साहब? आपका स्वागत है। जल्दी ही आइएगा। कहाँ खुदवा दूँ आपकी क़ब्र? चिंता ना करें। मुझे बिना जवाबों के ख़त लिखने की आदत है। जी नहीं। घबराइए नहीं। मेरे कहने से थोड़े ना आप जल्द चले आइएगा। इंतज़ार की आदत है मुझे। उम्र भर कर सकती हूँ। आपका। आपके ख़त का। या कि अपनी मौत का भी। अगर खुदा ना ख़स्ता आपके ख़त के आने के पहले मौत आ गयी तो आपके नाम का ख़त मेज़ की दराज़ में लिखा मिलेगा। लाल मुहर से बंद किया हुआ। जी नहीं। नाम नहीं लिखा होगा आपका। कोई भी ख़त पढ़ लीजिएगा साहब। सारे ख़तों में एक ही तो बात लिखी हुयी है। खुदा। मेरे नाम की क़ब्र का इंतज़ाम जल्दी कर। 

04 May, 2016

चाँद मुहब्बत। इश्क़ गुनाह।


'तुम वापस कब आ रही हो?'
'जब दुखना बंद हो जाएगा तब।'
'तुम्हें यक़ीन है कि दुखना बंद हो जाएगा?'
'हाँ'
'कब?'
'जब प्रेम की जगह विरक्ति आ जाएगी तब।'
'इस सबका हासिल क्या है?'
'हासिल?'
'हाँ'
'जीवन का हासिल क्या होता है?'
'Why are you asking me, you are the one here with all the answers. What’s the whole fu*king point of all this.'
'Please don’t curse. I’m very sensitive these days.'
'ठीक है। तो बस इतना बता दो। इस सबका हासिल है क्या?'
'मुझसे कुछ मत पूछो। मैं प्रेम में हूँ। उसका नाम पूछो।'
'क्या नाम है उसका?'
'पूजा।'
'This is narcissism.'
'नहीं। ये रास्ता निर्वाण तक जाता है। मुझे मेरा बोधि वृक्ष मिल गया है।'
'अच्छा। कहाँ है वह?'
'नहीं। वो किसी जगह पर नहीं है। वो एक भाव में है।'
'प्रेम?'
'हाँ, प्रेम।'
'तो फिर? गौतम से सिद्धार्थ बनोगी अब? राजपाट में लौटोगी? निर्वाण से प्रेम तक?
'नहीं। ये कर्ट कोबेन वाला निर्वाण है।'
'मज़ाक़ मत करो। कहाँ हो तुम?''
'I am travelling from emptiness to nothingness.'
'समझ नहीं आया।'
'ख़ालीपन से निर्वात की ओर।
'ट्रान्स्लेट करने नहीं समझाने बोले थे हम।'
'मुझे दूर एक ब्लैक होल दिख रहा है। मैं उसमें गुम होने वाली हूँ।'
'वापस आओगी?'
'तुम इंतज़ार करोगे?'
'मेरे जवाब से फ़र्क़ पड़ता है?'
'शायद।'
'Tell me why I’m in love with you.'
'Because you hurt. All over.'
'Do you need a hug?'
'You are touch phobic. Write a letter to me instead.' 
'Will you please not come back. Die in the fu*king black hole. I can't see you hurting like this.'
'Are you sure?'
'You are sure you don't love me?'
'Yes.'
'मर जाओ'
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उसकी हँसी। अचानक कंठ से फूटती। किसी देश के एयरपोर्ट पर अचानक से किसी दोस्त का मिल जाना जैसे। 

याद में सुनहले से काले होते रंग की आँखें हैं…बीच के कई सारे शेड्स के साथ। 
उसकी हँसी के साउंड्ट्रैक वाला एक मोंटाज है जिसमें क्रॉसफ़ेड होती हैं सारी की सारी। सुनहली। गहरी भूरी। कत्थई। कि जैसे वसंत के आने की धमक होती है। कि जैसे मौसमों के हिसाब से लगाए गए फूलों वाले शहर में सारे चेरी के पेड़ों पर एक साथ खिल जाएँ हल्के गुलाबी फूल। जैसे प्रेम हो और मन में किसी और भाव के लिए कोई जगह बाक़ी ना रहे। जैसे उसके होने से आसमान में खिलते जाएँ सफ़ेद बादलों के फूल। जैसे उसकी आँखों में उभर आए मेरे शहर का नक़्शा। जैसे उसकी उँगलियों को आदत हो मेरा नम्बर  डायल करने की कुछ इस तरह कि अचानक ही कॉल आ जाए उसका।  

उसी दुनिया में सब कुछ इतनी तेज़ी से घटता था जितनी तेज़ी से वो टाइप करती थी। सब कुछ ही उसकी स्पीड के हिसाब से चलता था। माय डार्लिंग, उसे तुम्हारे प्रेम रास नहीं आते। इसलिए उनका ड्यूरेशन इतनी तेज़ गति से लिखा जाता कि जैसे आसमान में टूटता हुआ तारा। शाम को टहलने जाते हुए दौड़ लगा ले पार्क के चारों ओर चार बार। टहलना भूल जाए कोई। उँगलियाँ भूल जाती थीं काग़ज़ क़लम से लिखना जब बात तुम्हारी प्रेमिकाओं की आती थी। 

जैसे तेज़ होती जाए साँस लेने की आवाज़। तेज़ तेज़ तेज़। 

कैसे हुआ है प्रेम तुमसे?

जैसे काफ़ी ना हो मेरे नाम का मेरा नाम होना। जैसे डर मिट गया हो। जैसे अचानक ही आ गया हो तैरना। जैसे मिल जाए बाज़ार में यूँ ही बेवजह भटकते हुए इंद्रधनुष  के रंगों वाला दुपट्टा कोई। कुछ भी ना हो तुम्हारा होना। 

बिना परिभाषाओं में बंधे प्रेम करने की बातें सुनी थीं पर ऐसा प्रेम कभी ज़िंदगी में बिना दस्तक के प्रवेश कर जाएगा ऐसा कब सोचा था। यूँ सोचो ना। क्या है। सिवा इसके कि तुम्हें मेरा नाम लेना पसंद है, कि जैसे झील में पत्थर फेंकना और फिर इंतज़ार करना कि लहरें तुम्हें छू जाएँगी…भिगा जाएँगी मन का वो कोरा कोना कि जिसे तुमने हर बारिश में छुपा कर रखा है। ठीक वहाँ फूटेगी ओरिएंटल लिली की पहली कोपल और ठीक वहीं खिलेगा गहरे गुलाबी रंग की ओरिएंटल लिली का पहला फूल। कि जैसे प्रेम का रंग होगा…और तुमसे बिछोह का। गहरा गुलाबी। चोट का रंग। गहरा गुलाबी। और हमारे प्रेम का भी। 

प्रेम कि जो अपनी अनुपस्थिति में अपने होने की बयानी लिखता है। तुम चलने लगो गीली मिट्टी में नंगे पाँव तो ज़मीन अपने गीत तुम्हारी साँस में रोप दे। तुम गहरा आलाप लो तो पूरे शहर में गहरे गुलाबी ओरिएंटल लिली की ख़ुशबू गुमस जाए जैसे भारी बारिश के बाद की ह्यूमिडिटी। तुम कोहरे में भी ना सुलगाना चाहो सिगरेट कोई। तुम्हारे होठों से नाम की गंध आए। तुम्हारी उँगलियों से भी। 

और सोचो जानां, कोई कहे तुमसे, कि बदल गयी है दुनिया ज़रा ज़रा सी, ऑन अकाउंट औफ आवर लव। कि अब तुम्हारा नाम P से शुरू होगा। तुम्हारा रोल नम्बर बदल गया है क्लास में। और अब तुम क्लास में एग्जाम टाइम में ठीक मेरे पीछे बैठोगे। तुम्हारे ग्रेड्स सुधर जाएँगे इस ज़रा सी फेर बदल से[चीटर कहीं के]। और जो आधे नम्बर से तुम उस पेरिस वाले प्रोग्राम के लिए क्वालिफ़ाई नहीं कर पाए थे। वो नहीं होगा। तुम जाओगे पेरिस। तुम्हारे साथ चले जाएगा उस शहर में मेरी आँखों का गुलमोहर भी। पेरिस के अर्किटेक्ट लोग कि जिन पर उसके इमॉर्टल लुक को क़ायम रखने की ज़िम्मेदारी है, वे परेशान हो जायेंगे कि पेरिस में इतने सारे गुलमोहर के पेड़ थे कहाँ। और अगर थे भी तो कभी खिले क्यूँ नहीं थे। तुम्हारा नाम P से होने पर बहुत सी और चीज़ें बदलेंगी कि जैसे तुम अचानक से नोटिस करोगे की मेरे दाएँ कंधे पर एक बर्थमार्क है जो मेरे नाम का नहीं, तुम्हारे नाम का है। 

वो सारे लव लेटर जो तुमने अपनी प्रेमिकाओं को लिखे हैं सिर्फ़ अपने नाम का पहला अक्षर इस्तेमाल करते हुए वे सारे बेमानी हो जाएँगे। मेरे कुछ किए बिना, तुम्हारे प्रेम पर मेरा एकाधिकार हो जाएगा। यूँ भी ब्रेक अप के बाद तुम्हें कौन तलाशने आता। टूटने की भी एक हद होती है। तुम्हारे प्रेम से गुज़रने के बाद, कॉन्सेंट्रेशन कैम्प के क़ैदी की तरह उनकी पहचान सिर्फ़ एक संख्या ही तो रह जाती है। सोलहवें नम्बर की प्रेमिका, अठारवें नम्बर का प्रेमी। परित्यक्ता। भारत के वृंदावन की उन विधवाओं की तरह जिनका कान्हा के सिवा कोई नहीं होता। किसी दूसरे शहर में भी नहीं। किसी दूसरी यमुना के किनारे भी नहीं। 

पागलों की दुनिया का खुदा एक ही है। चाँद। तो तुम्हारा नाम चाँद के सिवा कुछ कैसे हो सकता था। मेरे क़रीब आते हो तो पागल लहरें उठती हैं। साँस के भीतर कहीं। तुम्हें बताया किसी ने, तुम्हारा नया नाम? सोच रही हूँ तुम नाराज़ होगे क्या इस बात को जान कर। मेरी दुनिया में सब तुम्हें चाँद ही कहते हैं। कोई पागल नहीं रहता मेरी दुनिया में। एक मेरे सिवा। तुम मेरे खुदा हो। सिर्फ़ मेरे। मुझे प्रेम की परवाह नहीं है तो मुझे तुम्हारी नाराज़गी की परवाह क्यूंकर हो। बाग़ी हुए जा रही हूँ इश्क़ में। रगों में इंक़लाब दौड़ता है। कहता है कि चाँद को उसकी ही हुकूमत से निष्कासित कर कर ही थमेंगे। उसकी ख़्वाबगाह से भी। और मेरी क़ब्रगाह से तो शर्तिया। 

मैंने तुम्हें देखने के पहले तुम्हारा प्रतिबिम्ब देखा था…आसमान के दर्पण में। बादलों के तीखे किनारों को बिजली से चमकाया गया था। उनके किनारे रूपहले थे। 

मैं इस दुनिया से जा चुकी हूँ कि जहाँ सब कुछ नाम से ही जुड़ता था। इस रिश्ते का नाम नहीं था। मेरे लिए भी नाम ज़रूरी नहीं था। मेरे लिए मेरा नाम ही प्रेम है। उसकी आवाज़ ही हूँ मैं। और जानेमन, आवाज़ों का क्या रह जाता है।

वो तलाशे अगर तो कहना, ‘मैं उसकी प्रतिध्वनि थी’। 

01 May, 2016

Chasm

मुझे तुम्हारी कुछ याद नहीं है। रंग। गंध। स्पर्श। कुछ नहीं।
मुझे नहीं याद है कि तुम हँसते हुए कैसी लगती थी। एक्ज़ाम के लिए जाते हुए जब तुम्हारा पैर छूते थे तो उँगलियों की पोर में जो धूल लगती थी ज़रा सी वो याद है...कि उस वक़्त तुम अक्सर झाड़ू दे रही होती थी लेकिन तुम्हारी त्वचा का स्पर्श मुझे याद नहीं है। मुझे ये भी याद नहीं है कि तुम कैसे ख़ुश या उदास होती थी। तुम्हारी पसंद के गाने याद नहीं मुझे। सिवाए एक धुँधली सी स्मृति कि तुमको जौय मुखर्जी और बिस्वजीत पसंद था। एक गाना जो हम गाते थे और तुमको बहुत पसंद था, हम पिछले आठ सालों में नहीं सुने हैं। ना गाए हैं कभी।

मुझे नहीं याद है कि तुम्हारे हाथ के खाने का स्वाद कैसा था। हमको दीदिमा के हाथ का आलू और बंधागोभी का सब्ज़ी याद है लेकिन तुम्हारा कुछ याद नहीं है। जब लोग कहते हैं कि उनको घर का खाना पसंद है तो वो अक्सर अपनी माँ, चाची या ऐसी किसी की बात कर रहे होते हैं...कभी कभी बीवियों की भी। मुझे बाहर का खाना पसंद है। मुझे इंडियन कुजीन नहीं पसंद है। बाहर जाते हैं तो मेक्सिकन, इटलियन...जाने क्या क्या खा आते हैं। पसंद से। लेकिन इंडियन कुछ नहीं पसंद आया। मेरे लिए तो घर का खाना तुम्हारे साथ ही चला गया माँ। अपने हाथ के खाने में तुम्हारा स्वाद नहीं आता कभी। हमको तो मालूम भी नहीं है कि तुम कौन ब्राण्ड का मसाला यूज़ करती थी। यहाँ साउथ में मोस्ट्ली MTR मिलता है। यूँ तो बाक़ी सब भी मिलता है लेकिन सामने जो दिखता है वही ले आते हैं। हमको खाना बनाना अच्छा नहीं लगता। लेकिन जो भी मेरे हाथ का खाना खाया है वो सब बोला है कि हम बहुत अच्छा खाना बनाते हैं। हमको किसी को खाना खिलाने का शौक़ नहीं लगता है एकदम। कभी भी नहीं। हम किसी को बता नहीं सकते कि तुम कितना शौक़ से सबको खिलाया करती थी। मुझे याद नहीं है लेकिन एक फ़ोटो है जिसमें मेरे कॉलेज की दोस्त लोग आयी हुयी है और हम डाइनिंग टेबल पर खा रहे हैं। एक और दोस्त कहती है कि वो तुम्हारे जैसा ब्रेड पोहा बनाती है। हमको उसकी रेसिपी याद नहीं। उससे अपने माँ की ब्रेड पोहा की रेसिपी माँगना ख़राब लगेगा ना। देवघर में अभी भी तुम्हारी खाने की रेसिपी वाली ब्राउन डायरी है। लेकिन वो कौन से कोड में लिखी है कि तुम्हारे बिना खोल नहीं सकते उसको।

बैंगलोर में ठंढ नहीं पड़ती इसलिए स्वेटर की ज़रूरत नहीं पड़ी पिछले कई सालों से। पिछले साल डैलस जाना था तो तुम्हारे बने हुए स्वेटर वाला बक्सा खोला। बहुत देर तक सारे स्वेटर देखती रही। कुछ को तो छू छू कर देखा। सोचा कि कितना कितना अरसा लगा होगा इसमें से एक एक को बनाने में। मगर तुम मुझे स्वेटर बुनती हुयी याद में भी नहीं दिखी मम्मी।

तुम्हारे बिना जीने का कोई उपाय नहीं था इसके सिवा कि उन सारे सालों को विस्मृत कर दिया जाए। मेरी याद में ज़िंदगी के चौबीस साल नहीं हैं। मेरे बचपन की कोई कहानी नहीं है। मुझे याद नहीं मैंने आख़िरी बार तुम्हारी फ़ोटो कब देखी थी। कश्मीर के ऐल्बम रखे हुए हैं लेकिन पलटाती नहीं। जब तक दीदिमा थी तब तक फिर भी तुम्हारे होने की एक छहक थी उसमें। एक बार मिलने गए थे तो खाना खा रही थी...बोली एक कौर खिला देते हैं तुमको...मेरे साथ खा लो। हम पिछले आठ साल में शायद वो एक कौर ही खाए होंगे किसी और के हाथ से। दीदिमा तो तुमको भी खिला देती थी ना हमेशा। मामाजी को। हम बच्चा लोग को भी।

ये टूटन हमको कहाँ तक ले जाएगी मालूम नहीं। ख़ुद को कितना भी बाँध के रखते हैं कभी ना कभी कोई ना कोई फ़ॉल्ट लाइन दिख ही जाती है। कोई ना कोई भूचाल करवट बदलने लगता है। पिछले दो साल से मर जाने का मन नहीं किया था। लगा कि शायद हम उबर गए हैं। शायद वाक़ई हमको अब जीना आ ही जाएगा तुम्हारे बिना। लेकिन रिलैप्स होता है। परसों छत पर सनसेट देखने गए थे। ग़लती मेरी ही थी। अंतिम एप्रिल के महीने में हमको मालूम होना चाहिए था कि हम अभी कमज़ोर हैं। लेकिन हादसे बहुत दिन से नहीं होते हैं तो हम भूल जाते हैं कि उनके वापस लौट आने में लम्हा लगता है बस। छः माला की छत थी। सूरज डूब चुका था। मेरा दिल भी। हम जानते हैं कि दुनिया में किसी चीज़ से अटैचमेंट नहीं है मेरा। हमको सावधान रहना चाहिए। किसी को फ़ोन करने का मन नहीं किया। इक गर्म शाम सूरज के छोड़े गए लाल रंगों में बस डूब जाने का मन था। मालूम नहीं क्या बात करनी थी। कुछ दोस्तों को फ़ोन किया मजबूरी में। मुझे कोई आवाज़ चाहिए थी उस वक़्त। कुछ मज़ाक़। किसी की हँसी। किसी की भी। लगभग दो या तीन साल हो गए होंगे कि जब मर जाने को ऐसा बेसाख़्ता दिल चाहे। शायद मैं कभी नहीं जान पाऊँगी कि जीने की इच्छा से पूरा पूरा भरा भरा होना क्या होता है।

हमको मालूम नहीं है हम तुमको कहाँ कहाँ ढूँढते फिरते हैं। इस चीज़ से हमको डर लगता है बस। एक दिन किसी को कहने का मन किया कि अगली बार अगर हम साथ में खाना खाएँगे तो हमको एक कौर अपने हाथ से खिला देना। हमको ज़ब्त आता है तो उसको कहे नहीं ये बात लेकिन मम्मी, तुम ही सोचो। ऐसा चाहना ग़लत है ना। बता देते तो क्या सोचता वो भी। ऐसे कमज़ोर लम्हे हमको बहुत डराते हैं।

टूटा हुआ बहुत कुछ है। हम अपने आप को कहते चलते हैं कि हम बहुत मज़बूत हैं। बार बार बार बार। कि बार बार ख़ुद को कहते हुए इस बात पर यक़ीन आने भी लगता है कि शायद हम जी ही जाएँगे अपने हिस्से की उम्र। शायद कोई सुख होगा ज़िंदगी में कि जिसके लिए इतनी क़वायद है।

I'm incapable of love. Or of being loved. 

I miss you ma. You were the last love of my life. The unrequited one. The unconfessed one. The one who never knew. How much I loved you. 

I don't know what to do. I don't know how to live. I still don't know how to move on. I'm afraid beyond words. Beyond understanding. Beyond hurt and pain. 

Nothing heals. But that's because you were not a wound. Your departure too is not. It's a soul ache. I miss the part of my soul that died with you. 

I hope to see you soon. 

Happy Birthday my love. My ma. My only one. 
I shall always love you. always. 

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