22 November, 2015

द राइटर्स डायरी: जिंदगी जो एक पैकेट सिगरेट होती. तो मेरे नाम कितने कश आते?

इस साल मैंने लगभग ८६००० किलोमीटर का सफ़र तय किया है. कई सारे शहर घूमे हैं. कितनी सड़कें. कितने लोग. कितने समंदर. नदियाँ. झीलें. मुझे लोगों से बात करना पसंद है. मैं उन्हें खूब कहानियां सुनाती हूँ. उनके खूब किस्से सुनती हूँ. ---
बचपन का शहर एक पेड़ होता है जिसकी जड़ें हमारे दिल के इर्द गिर्द फैलती रहती हैं. जैसे जैसे उम्र बढ़ती जाती है हम इन जड़ों की गहराई महसूस करते हैं. इन जड़ों में जीवन होता है. हम इनसे पोषित होते हैं. 
घर. होता है. घर की जड़ें होती हैं. तुम कहाँ के रहनेवाले हो...के जवाब वालीं. हमारा गाँव दीनदयालपुर है. हम देवघर में पले-बढ़े. पटना से कॉलेज किये. दिल्ली से इश्क़ और मर जाने के लिए एक मुकम्मल शहर की तलाश में हैं. कई सारे शहर मुझ से होकर गुज़रे इन कई सालों में. मुझे सफ़र में होना पसंद है. सफ़र के दरमयान मैं अपने पूरे एलेमेंट्स में होती हूँ. बंजारामिजाजी विरासत में मिली है. पूरी दुनिया देख कर समझ आया कि एक दुनिया हमारे अन्दर भी होती है. जहाँ हर शहर अपने गाँव की कोई याद खींचे आता है. रेणु का लिखा इसलिए रुला रुला मारता है कि उसमें भागलपुरी का अंश मिलता है. इसलिए मेरे पापा मेरी पूरी किताब पढ़ते हैं तो उन्हें याद रहता है गाँव...अदरास...इसलिए जब विकिपीडिया पर पढ़ती हूँ कि अंगिका लुप्तप्राय भाषा की कैटेगरी में है तो मेरे अन्दर कोई गुलाब का पौधा मरने लगता है. अगर मेरे बच्चे हुए तो उन्हें कैसे सिखाउंगी अंगिका. उनकी पितृभाषा होगी अंगिका. मैं क्या दे सकूंगी उन्हें. हिंदी और अंग्रेजी बस. इनमें खुशबू नहीं आती. मैं कैसे बताऊँ उस छटपटाहट को कि जब कोई डायलॉग मन में तो भागलपुरी में उभरता है मगर उसको आवाज़ नहीं दे सकती कि मेरे पास शब्द नहीं हैं. कि मैं न अपनी दादी के बारे में लिख पाउंगी कभी न नानीमाय के बारे में. मैं अपना गाँव देखती हूँ जहाँ अधिकतर कच्चे घर अब पक्के होते गए हैं और उनमें बड़े बड़े ताले लटके हुए हैं. हाँ, गाँव का कुआँ अब सूखा नहीं है. बड़ा इनारा अब कोई जाता नहीं पानी लेने के लिए. सबके घर में बिजलरी की बोतल आ गयी है. दूर शहर में रह कर गाँव के लिए रोना बेईमानी है. मगर याद आता है तो क्या करूँ. जितना सहेजना चाहती हूँ न सहेजूँ? पापा को बोलते हुए सुनती हूँ तो कितने मुहावरे, रामायण की चौपाइयां, मैथ के इक्वेशन सब एक साथ कह जाते हैं...रौ में...उनकी भाषा में कितने शब्द हैं. मैंने ये शब्द कैसे नहीं उठाये...कहाँ से तलाशूँ. कहाँ पाऊँ इन्हें.
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किसी को एक कहानी सुना रही थी, 'हूक' पर अटक गयी. हूक किसे कहते हैं. मैं मुट्ठी भर अंग्रेजी के शब्दों में उसे कैसे बताऊँ कि हूक किसे कहते हैं. ये शब्द नहीं है. अहसास है. उसने किया होगा कभी इतनी शिद्दत से प्रेम कि समझ पाए हूक को?
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तुम्हारी किसी कविता को पढ़ कर जो 'मौसिम' विलगता है मन में...'विपथगा' का मतलब भूलती हूँ मैं...और माँ के हाथ के खाने के स्वाद को कहते हैं हूक. कहाँ से समझाऊं मैं उसे. मुझसे फोन पर बात कर रहा होता है और पीछे कहीं से उसकी माँ पुकार रही होती है उसको, 'आबैछियो', चीखता है वो...मैं हँसती हूँ इस पार. जाओ. जाओ. किसी बेरात दुःख या ख़ुशी पर माँ की याद चुभती है. सीने में. शब्द है 'माय गे...कुच्छु छै ऐखनी घरौ मैं...बड्डी भूख लग्लौ छौ'. हूक. चूड़ा दही का स्वाद है. भात खाते हुए आधे पेट उठना है कि माँ के सिवा किसी को मालूम नहीं कि हमको कितने भात का भूख है.
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हम जिस शहर लौट कर जाना चाहते हैं, वहाँ जा नहीं सकते...क्यूंकि वो शहर नहीं, साल होता है. सन १९९९. फरवरी.
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हूक तुमसे कभी न मिलने का फैसला है. इश्क़ से की गयी वादाखिलाफी है. तुम्हारी हथेली में उगता एक पौधा है...कि जिसकी जड़ों की निशानी हैं रेखाएं...जिनमें न मेरा नाम लिखा है न चेहरा.
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तुमसे मिले बिना मर जाने की मन्नत है. बदनसीबी है. दिल के पैमाने से छलकता मोह है.
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तुम्हें दफ्न करने के बाद कितने शहर दफन किये उस मिट्टी में. कितने समन्दरों से सींचा दिल का बंजर कोना मगर उसे भी रेगिस्तान बनने की जिद है. कितना कुछ समेटती रहती हूँ शहरों से. क्राकोव में एक कब्रिस्तान देखा था. वहाँ लोग छोटे छोटे पत्थर ला के रख जाते थे कब्रों पर. उनकी याद की यही निशानी होती थी. गरीबी के अपने उपाय होते हैं. तुम्हारी कब्र पर याद का ऐसा ही कोई भारी पत्थर है. शहरों से पूछती हूँ तुम्हारा पता. बेहद ठंढी होती हैं दुनिया की सारी नदियाँ. उनपर बने कैनाल्स पर के लोहे के पुल दो टुकड़ों में बंटते हैं...बीचो बीच ताकि स्टीमर आ जा सके. मैं बर्फीले पानी में अपनी उँगलियाँ डुबोये बैठी हूँ. सारा का सारा फिरोजी रंग बह जाए. सुन्न हो जाएँ उँगलियाँ. फिर शायद तुम्हें पोस्टकार्ड लिखने की जिद नहीं बांधेंगी. 
काश तुम्हें भूल जाना भी लिखना भूल जाने जितना आसान होता.
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तुम मेरी जड़ों तक पहुँचते हो. मुझे मालूम नहीं कैसे. तुम्हारे शब्दों को चख कर गाँव के किसी भोज का स्वाद याद आता है. पेट्रोमैक्स और किरासन तेल की गंध महसूस होती है उँगलियों में. अगर नाम कोई बीज होता तो कितने शहरों में तुम्हारी याद के दरख़्त खड़े हो चुके होते.
तुम्हें पढ़ती हूँ तो हूक सी उठती है. और मैं साँस नहीं ले पाती. 
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तुम्हारी सिगरेट के पैकेट में दो ही बची रह गयी हैं. जिंदगी जो एक पैकेट सिगरेट होती. तो मेरे नाम कितने कश आते?
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इधर बहुत दिनों से किसी चीज़ की फुर्सत नहीं मिली है. सोचने भर की नहीं. आज जरा इत्मीनान है. जाने क्यूँ मौत के बारे में सोच रही हूँ.
कि मैं किताबें पढ़ते हुए मर जाना चाहूंगी.

1 comment:

  1. पता नहीं यह क्या है, हम लगभग एक ही दौर में लिख रहे हैं और कहीं-कहीं लगता भी है कि 'वेवलेंथ' कितनी मिल-सी जाती है कभी-कभी। कुछ है जो लगातार छूट रहा है। मैं ख़ुद से छूटते जाते लम्हों को ऐसे ही लिखना चाहता हूँ। भले मेरे पास उन्हें कहने वाले शब्द न हों।

    ऐसे ही 'मुराकामी और मोने' वाली पोस्ट पर कहते-कहते चुप रह गया था। शब्द ही नहीं थे पास.. और कुछ नहीं, ..

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