27 April, 2013

न लिखना, न पढ़ना, न फिल्में देखना

लिखना या तो मुश्किल होता है या तो एकदम आसान. मुझे मुश्किल से लिखना नहीं आता. कितनी बार होता है कि अन्दर बहुत कुछ उमड़ घुमड़ रहा है पर शब्दों का आकार नहीं लेता...तब एक चुभन सी होती रहती है. जैसे कोई कील चुभी हो पाँव में...सिर्फ चलते वक़्त टीसती है. 

किसी को पढ़ना उसकी आत्मा से बात करने जैसा है. लेखक जितनी ही बड़ी कल्पना की दुनिया रचता है, उतनी ही सच्चाई से अपने आप को उसमें लिखते जाता है. मुझे कम लोगों का लिखना पसंद आता है. जाने क्यूँ कि किसी का लिखा छू नहीं पाता है दिल को. कुछ मिसिंग सा लगता है, जैसे उसने कुछ लिखना चाहा है जिसमें मैं डूबना चाहती हूँ पर पानी इतना उथला है कि चाह कर भी खुद को पूरा खोना नहीं हो पाया. मुझे फंतासी अच्छी लगती है. किसी ऐसी दुनिया में खो जाना जहाँ कुछ भी सच्चा न हो आसान होता है. किसी को पढ़ना कहीं भाग जाने का रास्ता खोलता है, ये लिखते हुए ऐलिस इन वंडरलैंड याद आती है. 

इधर काफी दिनों से कुछ अच्छा नहीं पढ़ा...कुछ भी अच्छा नहीं. मुराकामी की नार्वेजियन वुड रखी हुयी है, एक पन्ना भी पढ़ने का मन नहीं किया है. अकिरा कुरासावा की जीवनी जो कि बड़े शौक़ से खरीदी थी, जब कि उतने ही पैसे थे जेब में. कर्ट कोबेन के जर्नल्स पढ़ती हूँ कभी कभार. हैरी पोटर नहीं पढ़ा बहुत साल से शायद. दुष्यंत कुमार...अब अच्छे नहीं लगते. अज्ञेय...कभी कभी थोड़ा सा पढ़ती हूँ. और कोई नाम याद नहीं आ रहा. फिलहाल कोई पूछे कि तुम्हें पढ़ना अच्छा लगता है तो तुम्हारे पसंदीदा लेखक कौन हैं तो मेरे पास कोई नाम नहीं होगा. मैंने आखिरी कोई किताब कब पढ़ी थी...1Q84, शायद साल होने को आया. मैं टुकड़े में पढ़ नहीं सकती और एक पूरा समय मेरे पास है नहीं. 

कभी कभी सोचती हूँ कि आज के दस साल बाद शायद इस ऑफिस में बिताये लगभग एक साल के समय को कभी माफ़ नहीं कर सकूंगी. इस दौरान कितना कुछ खो गया मुझसे. मैंने लिखना बहुत कम कर दिया...मुझे सोचने का वक़्त ही नहीं मिलता. घर और ऑफिस के बीच भागती हुयी फुर्सत के लम्हों को ढूंढती रहती हूँ जब मैं कुछ सोच सकूं. इधर काम का प्रेशर भी इतना है कि अपने लिए वक़्त ही नहीं मिलता. इस पूरे हफ्ते मेरे पास कोई मेजर प्रोजेक्ट नहीं था. मेरे पास बहुत वक़्त था कुछ पढ़ने के लिए...कुछ लिखने के लिए मगर मैंने कुछ नहीं किया. लिखना भी एक आदत होती है जब आप चीज़ों को देखते हो और कुछ शब्दों में वे खुद ढलते चलते जाते हैं, लिखना हमेशा एफर्टलेस होता है, कोशिश करके लिखा नहीं जा सकता. 

कुछ फिल्में देखने की कोशिश की. कल दो फिल्में देखीं. इटरनल सनशाइन ऑफ़ दा स्पॉटलेस माइंड और आयरन मैं ३. दोनों फिल्मों ने मुझे निराश किया. आयरन मैन से तो मुझे बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं थी मगर इटरनल सनशाइन मैंने बहुत दिनों से टाल रखी थी...फुर्सत में देखने के लिए. उसका कांसेप्ट कितना अच्छा था...कहानी के साथ कितना कुछ अच्छा किया जा सकता था. फिल्म हड़बड़ी में बनायी गयी लगती है जैसे कोई डेडलाइन छूट रही हो. कांसेप्ट के साथ जो रोमांस शुरू होता है, जब धीमी आंच पर पकता है...बहुत वक़्त लगता है तब जा कर एसेंस कैप्चर हो पाता है. आजकल मुझे कहानियां भी उतना नहीं बांधतीं जितना कांसेप्ट बांधता है. शायद वोंग कार वाई की ज्यादा फिल्में देखने का असर है. इधर हाल में सोर्स कोड देखी थी...अच्छी लगी थी. 

कुछ पसंद करना मुश्किल क्यूँ होता जा रहा है. मैं क्या ओवेर्टली क्रिटिकल हो गयी हूँ चीज़ों के प्रति? नार्मल तरह से सोचूं तो मुझे आजकल कुछ अच्छा नहीं लगता, किसी चीज़ पर खुश नहीं होती. पहले चीज़ें अनकोम्प्लिकेटेड हुआ करती थीं. बारिशों में खुश, बहार में खुश, पतझड़ में खुश और जाड़ों में तो ख़ुशी से पागल. छोटी छोटी चीज़ों में खुश हो जाने वाली वो लड़की जाने कहाँ छुप गयी है. जिंदगी में एक लिखने के अलावा न कभी कुछ समझ में आया न कभी कुछ करने की कोशिश की. हर कुछ दिन में लेकिन जब ऐसा फेज आता है तो कुछ खुराफात मचती है. जैसे घर पेंट करने का मन करता है. खुद से ड्रिल करके घर में कुछ तसवीरें टांगने का मन करता है. बेसिकली कुछ ऐसा करने का मन जिसमें हाथ व्यस्त रहे...कलम से कुछ न लिखूं तो कुछ तो करूँ. इन फैक्ट खाना बनाना भी अच्छा लगता है. पर मम्मी वाला हाल है, नार्मल दाल चावल बनाने में अच्छा नहीं लगता. पास्ता, थाई ग्रीन करी, चाऊमिन जैसा कुछ बनाने का मन करता है. 

ये खुद को समझना कितना मुश्किल होता है. कोई किताब नहीं आती अपने ऊपर. क्या क्या करने का मन करता है...फिर से कहीं भाग जाने का मन करता है. समंदर किनारे खूब सारी रेत हो...लहरों पर रेस लगाऊं, साइकिल चलाऊं...कुछ करूँ...कुछ ऐसा जो करके सुकून मिले. बेसिकली खुद के होने को हमेशा वैलिडेट करने की जरूरत होती है. आखिर हम कर क्या रहे हैं...जिस दिन इसका जवाब नहीं मिलता जवाब ढूँढने की कवायद शुरू हो जाती है. 

कहानियों के किरदार कहीं चले गए हैं. कविताओं का राग भी. बस कुछ इने गिने शब्द हैं, इनका कोलाज है. मुझे एक लम्बी छुट्टी चाहिए. समंदर किनारे. तुम्हारे ही साथ कि अब तुम साथ नहीं होते तो सब अधूरा लगता है. भले ही तुम दूसरे वाले झूले पर अपने पसंद की किताब पढ़ते रहो और मैं अपनी. मगर एक लम्बी छुट्टी, सबसे दूर...फार फ्रॉम दा मैडिंग क्राउड. जिंदगी इतनी छोटी है वाकई कि मुझे लगती है!




How happy is the blameless vestal's lot!
The world forgetting, by the world forgot.
Eternal sunshine of the spotless mind!
Each pray'r accepted, and each wish resign'd.

13 comments:

  1. आँख बंद कर सो जाइये, बंगलोर में गर्मी इस बार कुछ नहीं करने देगी।

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  2. jitni shaleenta se aapne likha, wo padhna to mujhe achha lga.

    gukzar ko padhiye, 'raat pashmine ki' shayad pasand aye.

    ....aur apki pasand k hisaab se shayad 'that boy in striped pyjamas' film b pasand aye. :)

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  3. ऐसा लगता है जैसे आपने कोई कविता लिखी हो

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  4. छांटकर खराब सी माने जाने वाली चीजें पढो। उसके बीच में अच्छा भी। खराब अच्छे का हिसाब-किताब बहुत जमता है।

    न हो तो मनोहरश्याम जोशी रचित ’कसप’ पढो जिसकी नायिका बेबी लाटे नायक डी.डी. उर्फ़ देबिया से कहती है:


    "ऐसा करते हैं -मैं तुझे शैतानी सिखा दूंगी, तू मुझे पढ़ाई-लिखाई। ठीक है?"

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  5. वाकई कहीं दरिया का किनारा सुकून देगा..

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  6. लिखना हमेशा एफर्टलेस होता है, कोशिश करके लिखा नहीं जा सकता... सच.. :)

    पर मम्मी वाला हाल है, नार्मल दाल चावल बनाने में अच्छा नहीं लगता. पास्ता, थाई ग्रीन करी, चाऊमिन जैसा कुछ बनाने का मन करता है... अपना भी यही हाल है... :)

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  7. तेरी आँखों- से, अब वो समंदर नहीं मिलते।
    पीने वालो को, अब वो मंजर नहीं मिलते।
    इस भागती - दोड़ती जिन्दंगी में, इश्क?
    कभी तुम नहीं मिलते, कभी हम नहीं मिलते।

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  8. मैं टुकड़े में पढ़ नहीं सकती और एक पूरा समय मेरे पास है नहीं. ..... take a break.... :)

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  9. नई घटना या सोच ज़रूरी नहीं किसी को प्रभावित करे और आजकल सब कुछ थोडा अल्टर होकर आ रहा है तब उसमें आप जैसी लेखनी की मलिका का नया पा पाना मुश्किल ही है ......

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  10. सही कहा आपने '

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  11. मन को शांति देने के लिए कल्पनाओं की कल्पना कीजिये। काम से प्यार कीजिये। दुनिया अपने आप में में पूरी है, पर किसी के लिए अधूरी भी है। हम जहाँ को जैसा देखते हैं वो वैसा ही दिखता है। सारा समय हमारा है। हर पल को जियो।

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  12. aap achha likhte ho, dil pe na lo bas kuch try karo

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  13. आप क्या लिखती हैं कुछ ओर छोड़ पता नहीं चलता But शब्दों में एक नशा सा होता है।

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