29 January, 2012

डायरी से कुछ नोट्स

मैं अपने साथ एक कॉपी लिए चलती हूँ आजकल...जब जो दिल किया लिख लेने के लिए...कल दो दिन से ढूंढ रही थी...एकबारगी तो डर भी लग गया कि कहीं प्लेन पर तो नहीं छूट गयी...यूँ तो उसके खोने का अफ़सोस भी बेहद बेहद ज्यादा होता पर इस बार इस अफ़सोस में सिर्फ अपने लिखे के खो जाने का अफ़सोस नहीं होता...कुछ यादें भी बिसर जातीं...जैसे कि धूप में बैठ कर अनुपम को अपना लिखा कुछ पढ़ते हुए देखना...और मन ही मन खुश होना...हल्ला करना कि ये वाला पन्ना मत पढ़ो न...या कि फिर सबसे जरूरी दो पन्ने कि जिसमें अनुपम और स्मृति ने कुछ लिखा है...अनुपम ने लिखा 'anything' और स्मृति ने 'अचार'. क्यूंकि दोनों महानुभावों को जब डायरी थमाई गयी तो दोनों ने पूछा क्या लिखूं...और दोनों के ठीक वही लिखा जो मैंने लिखने को कहा!

घर पर कुणाल ने कहा सब कुछ ऑनलाइन लिख दिया करो...सब यहाँ रखने पर भी कागज़ में कुछ रह जाता है जिसकी खुशबू नहीं जाती...फिर भी...कुछ टुकड़े तो सकेर ही देती हूँ. 

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तुम्हारी खुशबू कैसी थी?
ख़ुशी को अगर bottle किया जा सके तो शायद वैसी कुछ. 
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इश्क के चले जाने के बाद...
जो बाकी रह जाए, वही जिंदगी है. 
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धूप को कैसे लिखते हैं, उसकी सारी गर्मी, सारी खुशबुओं के साथ, और ख़ुशी को? सब अच्छा अच्छा से लगने के अहसास को?
अपने खुद के मिल जाने के अहसास को? इतना प्यार किन शब्दों में समेटूं? कहाँ सहेजूँ, कैसे सकेरूँ? शब्द तो पूरे पड़ते ही नहीं हैं!

कैसा रास्ता था न कि दोस्त हर कदम पर साथ खड़े थे, कि किसी ने एक भी लम्हा तनहा नहीं होने दिया,
कितना प्यार ओह कितना प्यार!
खुदा तेरा शुक्रिया!
२५.१.१२
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उस दिन मुझसे करना बातें
जिस दिन दिल के ज़ख्म भरे हों
वरना इतनी चुप्पी सुन कर
कट जायेंगे सारे टाँके
खुल जाएगा दर्द का गट्ठर
कैसे जियोगे तनहा रातें?

टूट बिखरना, मुझको थामे
साथ मेरे दरिया में बहना
सांस छुटे जब आँख थामना
मर जाने तक थामे रहना

मेरी पेशानी पर रख दो
दो दिन के दो बासी बोसे
मेरी आँखों को कह दो न
तुम मेरे हो, मेरे हो न?

१८.१.१२
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तस्वीरों के उस पार से
एक लड़की मुझे देख कर
किलकती है 
उसकी मुस्कराहट इतनी जेनुइन है
कि मुझे उससे जलन होने लगती है.

१४.१.१२
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जमीन से आसमान तक बहती हुयी नदी थी और उस नदी पर बादलों के बहुत सारे पुल थे. स्केल से खींचा हुआ सीधा समंदर था. सूरज की किरणें उड़ेलीं गयीं थीं बादलों के सारे टुकड़ों पर ज्यों कोई दोशीजा अपने भीगे बदन पर सुनहला पानी डाल रही हो नहाते हुए. 
No wonder, nature is the muse of so many artists. You can never get bored of it. Just when you are just about to begin to think you have seen it all, it bares another of its mysteries. 
प्रकृति की इस नयी अदा पर आज हम क्या कहें!
(कलकत्ता से बंगलोर आते हुए फ्लाईट में)

८.१.१२
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I come back to you the pen the way I come back to you, in pain. At the need to fill an abject vacuum in my life. A vacuum I don't understand myself. 

18.12.11
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Those that can smile with a broken heart are those that know how to plant white Lillies in the fault lines that have formed. 
18.11.11
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The memory of that day has started to blur around the edges. There are some fuzzy characters, a little sound wave that echoes off the walls of memory. A peeled wallpaper here, a coffee machine token there. Air is still dense with cigarette smoke seen through burning, red eyes. The day passes in a jiffy and all that remains of that memory is relegated to black&white. The only thing that remains lifelike in that portrait is a caption written in green ink at the bottom white portion of the photograph.
'His eyes are brown'.
12.11.11
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28 January, 2012

जिंदगी से लबरेज़...मुस्कुराहटों सी खनकती हुयी...नदी सी बहती...बेपरवाह...


दुनियादारी की अदालत लगी है...मेरे घर के लोग, जान-पहचान वाले, कुछ अपने लोग, कुछ पक्के वाले दुश्मन, कुछ पुराने किस्से, कुछ टूटी कवितायें, गज़लों के कुछ बेतुके मिसरे...सब इकट्ठा हैं...वकील पूरे ताव में है...जोशो-खरोश में मुझसे सवाल कर रहा है...आपने क्या किया है अपनी जिंदगी के साथ? कोई बड़ा तीर मारा है...न सही कुछ महान लिखा है, क्या पढ़ा है, दोस्तों के नाम पर आपके पास कितने लोग हैं? कहते हैं कि भगवान ने आपको बड़ी बड़ी खूबियों से नवाजा है...आपने उनका क्या किया है। दुनियादारी के टर्म में समझाओ कि आज तक के तुम्हारी जिंदगी का हासिल क्या है? आखिर इतनी बड़ी जिंदगी बेमतलब गुजरने की सज़ा जरूरी है मिलोर्ड वरना लोग ऐसे ही खाली-पीली टाइम खोटी करते रहेंगे...मोहतरमा को जिंदगी बर्बाद करने के लिए सख्त से सख्त सज़ा मिलनी चाहिए...आप खुद ही इनसे पूछिये, देखिये जैसे चुपचाप खड़ी हैं...ऐसे लोगों को चैन से जीने दिया गया तो सबका जीना मुहाल हो जाएगा...आप इनसे पूछिये कि ये रेस का हिस्सा क्यूँ नहीं हैं...जब सबको कहीं न कहीं पहुँचने की हड़बड़ी है, इनके पास जिंदगी का कोई रूटमैप क्यूँ नहीं है। यायावर की जिंदगी का उदाहरण पेश कर रही हैं ये और उसपर बेशरम हो के हँसती हैं...इनसे पूछा जाए कि इनहोने अपनी पूरी जिंदगी क्या किया है?

जज साहब मेरी ओर सवालिया निगाहों से देखते हैं...और दोहराते हैं...मोहतरमा...आपने अपनी जिंदगी भर क्या किया है?

मेरी आँखों में कोई गीत उन्मुक्त हो नाच उठता है...मैं मुसकुराती हूँ और पूरी जनता को देखती हूँ...वकील को और आखिर में जज साहब को। 

और जितनी जिंदगी उस एक शब्द में आ सकती है समेट कर जवाब देती हूँ...एक शब्द में...
इश्क!

दिल्ली- याद का अनुपम चैप्टर

picture courtesy: Ashish Shah
एक एकदम भिटकिन्नी सी शैतान थी वो...बहुत ही चंचल...पूरा घर उसे आँखों पर बिठाये रखता था मगर उस भिटकिनिया की जान बसती थी दादा में...देवघर के तरफ थोड़ा बंगाली कल्चर होने के कारण कुछ बच्चे अक्सर अपने बड़े भाई को दादा बोलते थे...खास तौर से जो सबसे बड़े भैय्या हुए उनपर ये स्टेटस खूब सूट करता था. तो उस भिटकिनिया का भी एक बड़ा भाई था...जिसपर वो जान छिड़कती थी. भाई भी कैसा...हमेशा उसे अपने साथ रखने वाला...और एक बार तो माँ से जिद्दी भी लड़ा बैठा था कि अपने साथ उसे स्कूल ले जाएगा...पर भिटकिनिया तो अभी बस दो साल की थी...अभी कैसे स्कूल जाती...और जाती भी तो करती क्या. दादा बहुत बोलता था कि मेरे पास बैठी रहेगी...थोड़ा सा पढ़ ही लेगी आगे का तो क्या हो जाएगा...पर घर वाले बड़े बेवक़ूफ़ थे...उन्हें समझ नहीं आता था कि भिटकिनिया को अभी से आगे के क्लास की पढाई पढ़ा देने में क्या फायदा है. इस बात से बेखबर वो उसे अपनी सारी किताबें दिए रहता था...अब भिटकिनिया उसमें लिखे कुछ या पेंटिंग करे इससे बेखबर. 

हाँ, एक जगह वो हमेशा भिटकिनिया को साथ लिए चलता था...उसे साथ वाले दोस्त के साथ गुल्ली खेलने की जगह...गुल्ली खेली है कभी? उसे अच्छी भाषा में कंचे कहते हैं...कांच की गोलियां...अलग अलग रंगों में...उन्हें धूप में उठाओ तो उनसे रौशनी आती दिखती है और बेहद खूबसूरत और जीवंत लगती है...भिटकिनिया को कांच के गुल्ली भरे मर्तबान से अपने पसंद की गुल्ली मिल जाती थी...उस समय गुल्ली पांच पैसे की पंद्रह आती थी...और गुल्ला पांच पैसे का पांच. गुल्ला होता भी तो था तीन कंचों के बराबर...उसी से गुल्ली पिलाई जाती थी. गुल्ला को अच्छी भाषा में डेढ़कंचा बोलते थे...पर ऐसी अच्छी भाषा बोलने वाले गुल्ली खेलते भी थे ये किसी को मालूम नहीं था. 

गुल्लियाँ हमेशा खो जाती थीं...और गुल्ला तो खैर...कितने भी बार खरीद लो उतने ही बार खो जाएगा...फिर हमारी भिटकिनिया और उसका फेवरिट दादा नुक्कड़ की दूकान पर...वैसे भिटकिनिया के पास बहुत सारी गुल्लियाँ थी...दादा ने जितनी गुल्लियाँ जीती थीं जब उसी की तो हो जातीं थी...मगर भिटकिनिया अपने खजाने से थोड़े न किसी को एक गुल्ली देती..उसके पास सब रंग की गुल्लियाँ थीं...हरी, लाल, काली, पीली, भूरी...पर उसका पसंदीदा था एक शहद के रंग का गुल्ला...हल्का भूरा...उसमें से सूरज की रौशनी सबसे सुन्दर दिखती थी उस छुटंकी को.
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रेडियो पूजा जारी था...दिल्ली की ट्रैफिक में...
पता है अनुपम...तुम्हारे बाद किसी के साथ काम करने में मन नहीं लगा...एकदम भी...और वो राजीव...ओफ्फो...फूटी आँख नहीं सुहाता था हमको...एक तो वो था होपलेस...वैसे भी किसी को बहुत मुश्किल होती तुम्हारे बाद मेरा बॉस बनने में...पर कोई अच्छा होता तो चल भी जाता...वो...सड़ियल... एकदम अच्छा नहीं लगता था उसके साथ काम करने में. इन फैक्ट तुम्हारे बाद कोई अच्छा मिला ही नहीं जिसके साथ ऑफिस में मज़ा आये...यू नो...अच्छा लगे...इतने साल हो गए...आठ साल...
यहाँ अनुपम मुझे टोकता है...कि आठ साल नवम्बर में होंगे...और मैं अपना रेडियो चालू रखती हूँ...२०१२ हो गए न...आठ साल अच्छा लगता है बोलने में...सात साल कहने में मज़ा नहीं आता...खैर जाने दो...तुम बात सुनो न मेरी...किसी के साथ ऑफिस में अच्छा ही नहीं लगता...तुम कितने कितने अवसम थे...कितने क्रिएटिव...और कितने अच्छे से बात करते थे हमसे...पता नहीं दुनिया के अच्छे लोग कहाँ चले गए...वैसे पता है इधर बहुत दिन बाद किसी के साथ काम करने में बहुत मज़ा आया...पता है अनुपम...उसकी आँखें भी भूरी हैं...ही हैज गॉट वैरी ब्यूटीफुल आईज...ब्राउन...तुम्हारी तरह...अनुपम बस हँसता है और मुझसे पूछता है...तुम्हें बचपन में कंचे बड़े पसंद रहे होंगे...मैं कहती हूँ हाँ...तुम्हें कैसे पता...वो कहता है...बस पता है...जैसे कि उसको बहुत कुछ पता है मेरे बारे में. 
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इसके बहुत दिन बाद...लगभग एक हफ्ते बाद...मैं उसे अपनी डायरी पढ़ के सुना रही हूँ...दिल्ली से प्लेन उड़ा तो बहुत रोई मैं...फिर कुछ कुछ लिखा...उसमें ऐसी ही एक कहानी भी थी...मैं फोन पर उससे पूछती हूँ 

'अनुपम, तुमने बचपन में कंचे खेले हैं कभी?'
'नहीं'
(मैं एकदम होपलेस तरीके में सर हिलाती हूँ...अनुपम तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता टाइप)'
'तब जाने दो तुम नहीं समझोगे'

फिर मैं उसे पहले समझाने की कोशिश करती हूँ कि गुल्ली क्या होती है...कैसे गुल्ले से गोटियाँ पिलाई जाती हैं...पूरा गेम समझाती हूँ उसको...फिर बोलती हूँ...पता है अनुपम...ये जो कहानी है न...इसमें मैं मैं होती और तुम वो लड़का होते और मैं अपनी छोटी सी हथेली फैला कर तुमसे कुछ मांगती न...तो तुम अपनी पॉकेट में से ढूंढ कर वो गुल्ला निकलते और मेरी हाथेली में रख कर मेरी मुट्ठी बंद कर देते. 

मैं वो ब्राउन कलर का गुल्ला अपनी पूरी जिंदगी उस छोटे से बक्से में महफूज़ रखती जिसमें बचपन के खजाने होते हैं...और शादी के बाद अपने साथ अपने घर ले आती...जिस दिन मायके की बहुत याद सताती उस गुल्ले को निकाल कर धूप में देख लेती और खूब खूब सारा खुश हो जाती. 
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दिल्ली से आये कुछ दिन गुज़रे हैं...मैं सोच रही हूँ कि एकदम ही बेवक़ूफ़ हूँ...पता है फिर से मेरे पास ऐसी कोई फोटो नहीं है जिसमें मैं तुम्हारे साथ में हूँ. अकेली अकेली वाली फोटो देखती हूँ और हंसती हूँ कि मैं कितनी खुश थी जो ढंग की एक फोटो नहीं खींच पायी....अगली बार तुमसे मिलूंगी तो तुम्हारी खूब अच्छी वाली फोटो लूंगी...मेरी दिल्ली के सबसे अच्छे चैप्टर...अनुपम...तुम्हारा खूब खूब सारा...शुक्रिया नहीं कहूँगी :) :)

27 January, 2012

दिल्ली- याद का पहला पन्ना

Towards PSR
प्लेन के रनवे पर चलते ही दिल में बारिशें शुरू हो गयीं थीं...हलके से एक हाथ सीने पर रखे हुए मैं उसे समझाने की कोशिश कर रही थी कि इस बार जल्दी आउंगी...इतने दिन नहीं अलग रहूंगी इस शहर से...मगर दिल ऐसा भरा भरा सा था कि कुछ समझने को तैयार ही नहीं था...जैसे ही प्लेन टेकऑफ़ हुआ दिल में बड़ी सी जगह खाली हो गयी...आंसू ढुलक कर उस जगह को भरने की कोशिश कर रहे थे. अनुपम को बताया तो पूछता है कि प्लेन पर रो रही थी, किसी ने कुछ बोला नहीं...ये कोई ट्रेन का स्लीपर कम्पार्टमेंट थोड़े था कि आंटी लोग आ जायेंगी गले लगा लेंगे कि बेटा कोई नहीं...फिर से आ जाना दिल्ली...ऐसे नहीं रोते हैं...कोई पानी बढ़ा देगी पीने के लिए...कोई पीठ सहलाने लगेगी और सब चुप करा देंगी मुझे. प्लेन में बगल में एक फिरंगी बैठा था...मैं जी भर के रोई और फिर आँखें पोछ कर पानी पिया...चोकलेट खाई और डायरी निकल कर कुछ लिखने लगी...इस बीच कुछ कई बार अनुपम का और स्मृति का डायरी में लिखा हुआ पढ़ लिया...मुस्कुराना थोड़ा आसान लगा. 

मुझे कोई खबर नहीं कि मैं रोई क्यूँ...ख़ुशी से दिल भर आया था...सारी यादें ऐसी थीं कि दिल में उजली रौशनी उतर जाए...एक एक याद इतनी बार रिप्ले हो रही थी कि लगता था कि याद की कैसेट घिस जायेगी...लोग धुंधले पड़ जायेंगे, स्पर्श बिसर जाएगा...पर फिलहाल तो सब इतना ताज़ा धुला था कि दिल पर हाथ रखती थी तो लगता था हाथ बढ़ा कर छू सकती हूँ याद को. 

इतना प्यार...ओह इतना प्यार...मैं जाने कहाँ खोयी हुयी थी...मैं वापस से पहले वाली लड़की हो गयी...बिलकुल पागल...एकदम बेफिक्र और धूप से भरी हुयी...मेरी आँखें देखी तुमने...ये इतने सालों में ऐसे नहीं चमकती थीं. अपने लोगों से मिलना...मिलते रहना बेहद जरूरी है...क्यूंकि जानते हो...ईमेल के शब्द बिसर जायेंगे...फोन पर सुनी आवाज़ खो जायेगी...मगर भरे मेट्रो स्टेशन पर उसने जो भींच के गले से लगाया था ना...वो कहीं नहीं जाएगा अहसास...स्मृति...सॉरी यार...क्या करूँ मुझे लोगों की परवाह करना नहीं आता...अब तेरे गले लगने के पहले भी सोचती तो मैं तुझसे मिलती ही न...मुझे तेरे चेहरे पर का वो शरमाया सा अहसास याद आता है...वाकई हम कॉलेज में मिले होते तो एकदम दोस्त नहीं होते...तू देखती है न...मेरी कोई दोस्त है ही नहीं कॉलेज के टाइम की. 

Smriti&Me
I know, I know...
झल्ली लग रही हूँ :) 
पहले दिन ही स्मृति के साथ पार्थसारथी गए...IIMC का अपना होस्टल दिखाया उसे...और पैदल चल दिए...जेऐनयू के रास्तों पर...वहाँ पत्थरों में जड़ें गहरायीं और जो मिटटी में था इश्क उसे फिर से अपने सिस्टम में भरने दिया...हवाएं...शाम...तोतों का उड़ता झुण्ड...हरियाली...सब वैसा ही था...मेरे अन्दर जो लड़की कहीं खो गयी थी, वापस लौट के चली आई...दुपट्टा लहराते हुए. मैं लगातार बोलती जा रही थी...सॉरी स्मृति रे...सोचती हूँ मेरे साथ चलना कैसा होगा...मैं वहाँ जा कर एकदम अपने फुल फॉर्म में आ जाती हूँ...वो मेरी दुनिया की सबसे पसंदीदा जगहों में से है और मैं तुझसे बहुत प्यार करती हूँ इसलिए तेरे साथ उधर गयी थी...वहाँ बैठ कर पुराने दोस्तों को याद किया...कुछ को फोन किया...और लौट आई. 

रात की बस थी जयपुर के लिए...पर जयपुर गए नहीं उस रात...उसे कैंसिल करा के सुबह आठ बजे की बस की...जयपुर का रास्ता दोनों तरफ सरसों के खेतों से भरा हुआ था...बस में एकदम आगे वाली सीट थी...कुणाल को फिट करने के लिए आगे की सीट ली थी...मैं तो किसी भी जगह अट जाती हूँ. खैर...बड़ा खूबसूरत रास्ता था...दोनों तरफ पहाड़...सरसों के खेत...जाने क्या क्या...आधी नींद आधे जगे हुए में देखा...कभी ख्वाब लगता तो कुछ और दोस्त भी ख्वाबों में टहलते हुए चले आते...तब उन्हें sms कर देती...देखो कहे देती हूँ जिसको जिसको sms  किया है...इसी कारण किया होगा :) 

जयपुर करीब तीन बजे पहुंचे...अंकन...जिसकी शादी का रिसेप्शन अटेंड करने हम गए थे...हमें खुद रिसीव करने आया :) हम VIP  गेस्ट जो थे. रात की कोकटेल पार्टी का हाल दूसरी पोस्ट में :) 

24 January, 2012

शी लव्स मी नॉट...

उसने एक गहरी सांस ली
डूबने के ठीक पहले वाली
या फिर 
चूमने के ठीक बाद वाली 
उसे ठीक से याद नहीं

....
आँख के रस्ते तक सरसों के पीले खेत थे...जैसे किसी सुघड़, सुशील लड़की ने एकदम करीने से धरती पर पीली सरसों के रंग की चादर बिछायी हो और तुम्हारे ख्यालों में खोये हुए बिस्तर की सलवटें ठीक की हों. ख्वाबों के कौन कौन से कतरे उठा के साइड वाले कूड़ेदान में डाली हों...कि उसे तो सब था...नासमझ सी कुछ उम्मीदें परदे पर टंगी होंगी कि जब उसने धूल की तरह डस्टर से झाड़ा होगा तुम्हारा नाम...

वीरानी गलियों में रात रास्ता भटक गयी होगी...किसी लैम्पोस्ट से पूछा होगा तुम्हारे देश का पता...रौशनी कमबख्त आँखों में भर गयी होगी और रात को सोने न दिया होगा...कितनी देर जागी होगी तुम्हें सोचते हुए...कितने गाने सुने होंगे, कितने शेर पढ़े होंगे और आखिर में जब कुछ याद न रह पाता होगा तो तुम्हारे इकलौते ख़त को फिर से बड़े अहतियात से खोला होगा और शब्दों को छू कर तुम्हें छू लेने का गुमान पाले सोयी होगी.

लड़की वाकई नासमझ है जो तुमसे प्यार करती है...या कि तुमसे प्यार करते हुए नासमझ हो गयी है...तुम्हें कौन बतलाये...फिलहाल तो इतना जान लो कि बड़ी खराबियां हैं उसमें...ज्यादा बताउंगी तो कौन जाने प्यार करो ही न उससे...फिलहाल तो इतना जानो कि जब उसे तुम्हारी बेतरह याद आती है...बेतरह मतलब एकदम ऐसी कि सांस न ले पाए तो वो चुप हो जाती है...उसके पहले, काफी पहले तक वो मुस्कुरा के बातें करती रहती है...उसकी चुप्पी तुम जान भी न पाओगे मेरी जान. तुम्हारे प्यार में इतना तो सीख ही लिया उसने कि तुमसे झूठ बोल लेती है...तुम क्यूँ उसका ऐतबार करते हो...तुम्हें लगता है न कि वो उदास है तो बस उसकी आवाज़ सुन कर तसल्ली करते ही क्यों हो...उसके पास जाओ तो सही...हाँ वो ऐसी है कि कभी न कहेगी कि उदास है...पर वो ऐसी भी तो है कि जबरदस्ती खींच कर अपने सीने से लगाओगे तो तुम्हारे कांधे से कोई चिनाब बह निकलेगी.

वो एकदम अच्छी लड़की टाईप नहीं है...पर जाने क्यूँ तुमसे बात करते हुए उसका अच्छा होने का मन करने लगता है...सलीके से बातें करना...थोड़ा ठहरना...बिना तुम्हारे मांगे वो अपने किनारे बनाने लगती है. उसे तुम्हें बहा ले जाने में डर लगता है...तुम्हें किसी ने बताया कि पार्टी पर उसने सिर्फ इस डर से कि तुम्हारा नाम उसके होठों पर आ जाएगा सिर्फ तीन लार्ज व्हिस्की पी...ऑन द रॉक्स. तुम इतना तो जानते हो न कि उसका सिगरेट पीने का मन कब करता है और वो तब भी सिगरेट नहीं पीती...तो बता दूं उस रात उसने बहुत सी सिगरेटें पी थीं...फिर उदास होते शहर की बुझती रोशनियों में तुम्हारे चेहरे का नूर देखा था.

उफ़क पर किसी दूर शहर का प्रतिबिम्ब था कि सितारों का कोई जखीरा तुम्हारे चेहरे जैसा लगा था...उँगलियों में फंसी सिगरेट ख़त्म होने वाली थी जब उसने एक गहरा कश लिया और तुम्हारी याद के साथ उसे सीने में कैद कर लिया...सांस बुझती रही गर्म कोयलों के साथ कि खुले में अलाव तापते हुए उसने सिर्फ तुम्हें याद किया...यकीन करो पार्टी में कोई ऐसा नहीं था जिसने उसे मुड़ के न देखा हो...उसके चेहरे पर एक बड़ी खुशमिजाज़ सी मुस्कराहट थी...बहुत जिंदगी थी उसके चेहरे पर...और तुम तो जानते हो जिंदगी से ऐसा लबरेज़ चेहरा सिर्फ इश्क में होता है.

तुमने उसे उस रात डांस करते हुए नहीं देखा...यूँ तो वो इतना अच्छा डांस करती है कि फ्लोर पे लोग डांस करना भूल के सिर्फ उसकी अदाएं देखते हैं...पर कल वो दूसरे मूड में थी...उसके सारे स्टेप्स गड़बड़ थे पर वो हंस रही थी बेतहाशा...वो खुश थी बहुत...कहने को वो किसी और की बांहों में थी पर उससे पूछो तो उसकी आँखों के सामने बस एक ही चेहरा था...तुम्हारा. 




कब तक कोई इस खुश-ख्याल में जिए कि तुम्हारी बांहों में मर जाना कैसा होता होगा?

21 January, 2012

जिंदगी के सबसे खूबसूरत लम्हों की तसवीरें नहीं होतीं...


क्या कहूँ...आज के दिन का वाकई कुछ याद नहीं है...सिवाए इसके कि जितनी तुमने बाँहें खोली थीं उनमें पूरा आसमान आ जाता...
रिश्ते पर जाती हूँ तो बस इतना है कि मैं बहुत खुश थी...और तुम भी. बस. 

बहुत देर से कोरा पन्ना खुला हुआ है...जानती हूँ कि कुछ नहीं लिख सकूंगी...कुछ भी नहीं...तुम्हें इतने सालों बाद देखना...तुम्हें छूना...तुम्हारे गले लगना...

बस...आने वाले कई सालों के लिए इसे यहाँ सहेज के रख रही हूँ...कि आज इक्कीस जनवरी २०१२ की रात मेरे चेहरे पर एक मुस्कान थी...तुम्हारे कारण...दिल में धूप उतरी थी...सब कुछ अच्छा था...कहीं कोई दर्द नहीं था...एक लम्हा...सुकून था. 

La vie, Je t'aime!

Life, I love you!

जिंदगी...मुझे तुझसे मुहब्बत है!

20 January, 2012

रात के ठीक साढ़े ग्यारह बजे...

हजारों किलोटन का एक हवाई जहाज़ है...उसकी सारी धमनियां बिछा कर एक रनवे बना दिया गया है...कहीं का पढ़ा हुआ बेफुजूल का कुछ याद आता है कि शरीर की सारी धमनियों को निकाल कर, जोड़ कर एक सीध में लपेटा जाए तो पूरी धरती के चारों ओर कुछ सात बार फिर जायेंगी...या ऐसा ही कुछ. उसे ठीक याद नहीं है. उसे याद आती है उस लड़की की परिधि...उसके इर्द गिर्द कस के लपेटा गया दुपट्टा...जब कि वो मोहल्ले की छत पर कित कित खेल रही होती थी. 

विमान बहुत तेज़ी से रनवे पर दौड़ रहा है और उसके भार से उसके फेफड़े सांस नहीं खींच पा रहे हैं...ऐसा लगता है किसी ने उसे भींच कर सीने से लगाया हो...और वो वहीं मर जाना चाहता है...विमान रुकने का नाम ही नहीं लेता...पहियों के घर्षण से उसके मुलायम हाथ लावे की तरह दहकने लगे हैं...उसे लगता है कि वो इन हाथों में कैसे उसका चेहरा भरेगा...उसके गाल झुलस जायेंगे...फूल से नाज़ुक उसके गाल...वो चाहता है कि हवाईजहाज़ कहीं रुके...कहीं तो भी रुके कि सीने में अटकी हुयी सांस वापस खींच सके...इतने में उसे याद आता है कि कुछ देर पहले कंट्रोल रूम से एक फोन आया था उसे...उस तरफ लड़की का महीन कंठ था...मिन्नतों में भीगा हुआ...वो उड़ते उड़ते थक गयी है...थोड़ी देर उतरना चाहती है...थोड़ा इंधन भरना चाहती है...बस एक स्टॉपओवर...चंद लम्हों का. उसे  ये भी याद आता है कि उसने विमान उतारने की इज़ाज़त नहीं दी है और इसलिए विमान शहर के चक्कर काट रहा है. वो कशमकश में है...दुश्मन मुल्क का विमान उतरने दिया तो आगे चल कर बहुत से दुष्परिणाम होंगे...उसकी नौकरी भी जा सकती है...मगर फिर वो महीन आवाज़...मे डे(May Day) बरमूडा ट्राईएंगल में डूबते हुए लोगों की आखिरी आवाजों जैसी...अगर उसने ना कहा तो क्या ये आवाज़ उसे कभी सुकून से सोने देगी...इस पूरी जिंदगी के बाकी बचे दिन?

कॉफ़ी का मग लेकर वो फ्लास्क के पास गया है...अन्यमनस्क सा कॉफ़ी कप में भरता जाता है...धुंध में बिसरते शहर के सामने एक विमान घूम रहा है...उसकी लाइटें जल-बुझ रही हैं...लड़के को फिर से किसी की बुझती सांसें याद आती हैं...बाहर का तापमान दस डिग्री सेल्सियस है...विमान जिस उंचाई पर उड़ रहा है वहां तापमान कुछ माइनस १० डिग्री के आसपास ही होगा...वो सम की तलाश करने लगता है...कहीं जीरो पॉइंट...जहाँ उसे कुछ पल सुकून मिले. 

उसके पास सोचने को ज्यादा वक़्त नहीं है...जितने में कॉफ़ी की भाप उसके चश्मे पर जमे उसे साफ़ साफ़ निर्णय लेना है...और ठोस कारण देने हैं...कि क्यूँ दुश्मन मुल्क के विमान को उतरने की इज़ाज़त दी गयी...आवाज़ के कतरे की मूक प्रार्थना किसी नियमावली में नहीं गिनी जाती है...उसकी सदयता उसके खिलाफ बहुत आराम से इस्तेमाल की जा सकती थी...और वो वाकई नहीं जानता था कि आखिर किस कारण से ये भटका हुआ विमान मिटटी पर उतरने की इज़ाज़त चाहता था. दिल और दिमाग की जद्दोजहद में आखिर दिमाग ने बाज़ी जीती और उसने विमान को उतरने की इज़ाज़त नहीं दी...दूसरे पास के एयरपोर्ट के को-ऑर्डिनेट बताये उसे...हौसला अफजाही की...झूठ बोला कि विमान उतारने की जगह नहीं है. विमान की पाइलट लड़की ने जब सब डिटेल्स समझ लिए तो वो विमान आँखों से ओझल हो गया.

अगले दिन लड़का जब लॉग देख रहा था तो उसमें किसी विमान का कोई जिक्र नहीं था...उसने बारहा अपने कई और साथियों से पूछा कि उन्होंने  वो विमान देखा था...मगर किसी ने हामी नहीं भरी. 

घटना को बहुत साल हो गए...पर अब भी जब दिल्ली में कोहरा छाता है और रात के साढ़े ग्यारह बजते हैं...लड़का उस विमान का इंतज़ार करता है...वो किसी याद का छूटा हुआ प्रतिबिम्ब था...किसी और जन्म के इश्क की अनुगूंज...कि कौन थी वो लड़की...कि किसकी डूबती आवाज़ ने उसे पुकार कर कहा था...मैं उड़ते उड़ते थक गयी हूँ...मुझे अपनी बाँहों में एक लम्हा ठहर जाने दो...


लड़के का दिल खामोश है...कोई जिद नहीं करता... कुछ नहीं मांगता...कि कोई आवाज़ नहीं आती...कोई धड़कन नहीं उठती...



कि उसका दिल रूठा हुआ है आज भी...
कि उसे आज भी उसे जाने किस 'हाँ' का इंतज़ार है!

18 January, 2012

जान तुम्हारी सारी बातें, सुनती है वो चाँद की नानी

जान तुम्हारी सारी बातें
सुनती है वो चाँद की नानी
रात में मुझको चिट्ठी लिखना
सांझ ढले तक बातें कहना

जरा जरा सा हाथ पकड़ कर
इस पतले से पुल पर चलना
मैं थामूं तुम मुझे पकड़ना
इन्द्रधनुष का झूला बुनना 

रात इकहरी, उड़ी टिटहरी
फुग्गा, पानी, धान के खेत
बगरो बुड़बक, कुईयाँ रानी 
अनगढ़ बातें तुमसे कहना 

कितने तुम अच्छे लगते हो
कहते कहते माथा धुनना 
प्यार में फिर हो पागल जैसे
तुमसे कहना, तुमसे सुनना 

लड़की ने गहरा गुलाबी कुरता डाल रखा था और उसपर एकदम नर्म पीले रंग की शॉल...शाम चार बजे की धूप में उसके बाल लगभग सूख गए थे...कंधे तक बेतरतीबी से अनसुलझे बाल...धूप में चमकता गोरा रंग...चेहरे पर हल्की धूप पड़ रही थी और वो सूरज की ओर आधा चेहरा किए खून के गरम होने को महसूस कर रही थी...लग रहा था महबूब की हथेली को एक हाथ से थामे गालिब को पढ़ रही है। 

शाम के रंग एक एक कर के हाज़िरी देने लगे थे...गुलाबी तो उसे कुर्ते को छोड़ कर ही जाने वाला था की उसने मिन्नतें करके रोका की सफ़ेद कुर्ते पर इश्क़ रंग चढ़ गया तो रात की सारी नींदें उससे झगड़ा कर बैठेंगी। लोहे की सीढ़ियों पर थोड़ी ही जगह थी जहां लड़की थोड़ा सा दीवार से टिक के बैठी थी और लड़का कॉपी पर झुका हुआ कुछ लिख रहा था। आप गौर से देखोगे तो पाओगे की पूरी कॉपी में बस एक नाम लिखा हुआ था और कोरे कागज़ पर तस्वीरें थीं...उनमें एक बड़ा दिलफ़रेब सा कच्चापन था...आम के बौर जैसा। सरस्वती पूजा आने में ज्यादा वक़्त रह भी नहीं गया था...बेर के पेड़ों से फल गिरने लगे थे। कहते हैं कि विद्यार्थियों को वसंत पंचमी के पहले बेर नहीं खाने चाहिए...वो पूजा में चढ़ने के बाद ही प्रसाद के रूप में खाने चाहिए। 

लड़का ये सब नहीं सोच रहा था...लड़की के बालों से ऐसी खुशबू आ रही थी कि उसका कुछ लिखने को दिल नहीं  कर रहा था...दोपहर का बचा हुआ ये जरा सा टुकड़ा वो अपने जींस की जेब में भर कर वहाँ से चले जाना चाहता था...पर लड़की की जिद थी कि जब तक बाल नहीं सूखेंगे वो छत से उतरेगी नहीं। उसने थक कर अपनी कॉपी बंद कर दी...लड़की ने भी गालिब को बंद किया और उसकी कॉपी उठा कर देखने लगी। उसका दिल तो किया कि कुछ शेर जो बहुत पसंद आए हैं वो लिख दे...पर ये बहुत परफेक्ट हो जाता। उसे परफेक्शन पसंद नहीं था...प्यार की सारी खूबसूरती उसके कच्चेपन, उसकी मासूमियत, उसके अनगढ़पन में आती थी उसे। बाल धोने के बाद की टेढ़ी-मेढ़ी मांग जैसी। 

इसलिए उसने कॉपी पर ये कविता लिख दी...ये एकदम अच्छी कविता नहीं है...इसमें कुछ भी सही नहीं है...पर इसमें खुशबू है...जिस एक दोपहर के टुकड़े दोनों एक दूसरे के साथ थे, उस दोपहर की।  इसमें वो तीन शब्द नहीं लिखे हुये हैं...पर मुझे दिखते हैं...तुम्हें दिखते हैं मेरी जान?

17 January, 2012

मैं तुमसे नफरत करती हूँ...ओ कवि!

वे दिन बहुत खूबसूरत थे
जो कि बेक़रार थे 
सुलगते होठों को चूमने में गुजरी वो शामें
थीं सबसे खूबसूरत 
झुलसते जिस्म को सहलाते हुए
बर्फ से ठंढे पानी से नहाया करती थी
दिल्ली की जनवरी वाली ठंढ में
ठीक आधी रात को 
और तवे को उतार लेती थी बिना चिमटे के
उँगलियों पर फफोले पड़ते थे
जुबान पर चढ़ता था बुखार
तुम्हारे नाम का

खटकता था तुम्हारा नाम 
किसी और के होठों पर
जैसे कोई भद्दी गाली 
मन को बेध जाती थी 
सच में तुम्हारा प्यार बहुत बेरहम था
कि उसने मेरे कई टुकड़े किये

तुम्हारे नाम की कांटेदार बाड़
दिल को ठीक से धड़कने नहीं देती थी
सीने के ठीक बीचो बीच चुभती थी
हर धड़कन


कातिल अगर रहमदिल हो
तो तकलीफ बारहा बढ़ जाती है
या कि कातिल अगर नया हो तो भी

तुम मुझे रेत कर मारते थे
फिर तुम्हें दया आ जाती थी 
तुम मुझे मरता हुआ छोड़ जाते थे
सांस लेने के लिए
फिर तुम्हें मेरे दर्द पर दया आ जाती थी
और फिर से चाकू मेरी गर्दन पर चलने लगता था 
इस तरह कितने ही किस्तों में तुमने मेरी जान ली 

इश्क मेरे जिस्म पर त्वचा की तरह था
सुरक्षा परत...तुम्हारी बांहों में होने के छल जैसा
इश्क का जाना
जैसे जीते जी खाल उतार ले गयी हो
वो आवाज़...मेरी चीखें...खून...मैं 
सब अलग अलग...टुकड़ों में 
जैसे कि तुम तितलियाँ रखते थे किताबों में
जिन्दा तितलियाँ...
बचपन की क्रूरता की निशानी 
वैसे ही तुम रखोगे मुझे
अपनी हथेलियों में बंद करके
मेरा चेहरा तुम्हें तितली के परों जैसा लगता है
और तुम मुझे किसी किताब में चिन देना चाहते हो 
तुम मुझे अपनी कविताओं में दफनाना चाहते हो
तुम मुझे अपने शब्दों में जला देना चाहते हो

और फिर मेरी आत्मा से प्यार करने के दंभ में
गर्वित और उदास जीवन जीना चाहते हो. 

मैं तुमसे नफरत करती हूँ ओ कवि!

14 January, 2012

हैप्पी बर्थडे बिलाई

आज सुबह छह बजे नींद खुल गयी...अक्सर सुबह ही उठ रही हूँ वैसे...इस समय लिखना, पढना अच्छा लगता है. सुबह के इस पहर थोड़ा शहर का शोर रहता है पर आज जाने क्यूँ सारी आवाजें वही हैं जो देवघर में होती थीं...बहुत सा पंछियों की चहचहाहट...कव्वे, कबूतर शायद गौरईया भी...पड़ोसियों के घर से आते आवाजों के टूटे टुकड़े...अचरज इस बात पर हो रहा है कि कव्वा भी आज कर्कश बोली नहीं बोल रहा...या कि शायद मेरा ही मन बहुत अच्छा है.

बहुत साल पहले का एक छूटा हुआ दिन याद आ रहा है...मकर संक्रांति और मेरे भाई का जन्मदिन एक ही दिन होता है १४ जनवरी को. आजकल तो मकर संक्रांति भी कई बार सुनते हैं कि १५ को होने वाला है पर जितने साल हम देवघर में रहे...या कि कहें हम अपने घर में रहे, हमारे लिए मकर संक्रांति १४ को ही हर साल होता था. इस ख़ास दिन के कुछ एलिमेंट थे जो कभी किसी साल नहीं बदलते.

मेरे घर...गाँव के तरफ खुशबू वाले धान की खेती होती है...मेरे घर भी थोड़े से खेत में ये धान की रोपनी हर साल जरूर होती थी...घर भर के खाने के लिए. अभी बैठी हूँ तो नाम नहीं याद आ रहा...महीन महीन चूड़ा एकदम गम गम करता है. १४ के एक दो दिन पहले गाँव से कोई न कोई आ के चूड़ा दे ही जाता था हमेशा...चूड़ा के साथ दादी हमेशा कतरी भेजती थी जो मुझे बहुत बहुत पसंद था. कतरी एक चीनी की बनी हुयी बताशे जैसी चीज़ होती है...एकदम सफ़ेद और मुंह में जाते घुल जाने वाली. कभी कभार तिल के लड्डू भी आते थे.

अधिकतर नानाजी या कभी कभार छोटे मामाजी पटना से आते थे...खूब सारा लडुआ लेकर...मम्मी ने कभी लडुआ बनाना नहीं सीखा. लडुआ दो तरह का होता था...मूढ़ी का और भूजा हुआ चूड़ा का...पहले हम मूढ़ी वाले को ही ख़तम करते थे क्यूंकि चूड़ा वाला थोड़ा टाईट होता था उसको खाने में मेहनत बेसी लगता था. नानाजी हमेशा जिमी के लिए स्वेटर भी ले के आते थे और नया कपड़ा भी. जिमी के लिए एक स्वेटर मम्मी हमेशा बनाती ही थी उसके बर्थडे पर...वो भी एक आयोजन होता था जिसमें सब जुट कर पूरा करते थे. कई बार तो दोपहर तक स्वेटर की सिलाई हो रही होती थी. हमको हमेशा अफ़सोस होता था कि मेरा बर्थडे जून में काहे पड़ता है, हर साल हमको दो ठो स्वेटर का नुकसान हो जाता था.

तिलकुट के लिए देवघर का एक खास दुकान है जहाँ का तिलकुट में चिन्नी कम होता है...तो एक तो वो हल्का होता है उसपर ज्यादा खा सकते हैं...जल्दी मन नहीं भरता. उ तिलकुट वाला के यहाँ पहले से बुकिंग करना होता है तिलसकरात के टाइम पर काहे कि उसके यहाँ इतना भीड़ रहता है कि आपको एक्को ठो तिलकुट खाने नहीं मिलेगा. वहां से तिलकुट विद्या अंकल बुक करते थे...कोई जा के ले आता था.

सकरात में दही कुसुमाहा से आता था...कुसुमाहा देवघर से १६ किलोमीटर दूर एक गाँव है जहाँ पापा के बेस्ट फ्रेंड पत्रलेख अंकल उस समय मुखिया थे...उनके घर में बहुत सारी अच्छी गाय है...तो वहां का दही एकदम बढ़िया जमा हुआ...खूब गाढ़ा दूध का होता था...ई दही एक कुढ़िया में एक दिन पहले कोई पहुंचा जाता था...और दही के साथ अक्सर रबड़ी या खोवा भी आता था. इसके साथ कभी कभी भूरा आता था जो हमको बहुत पसंद था...भूरा गुड का चूरा जैसा होता है पर खाने में बहुत सोन्हा लगता है. १४ को हमारे घर में कोबी भात का प्रोग्राम रहता था...उसके लिए खेत से कोबी लाने पापा के साथ विद्या अंकल खुद कुसुमाहा जाते थे...१४ की भोर को.

ये तो था १४ को जब चीज़ों का इन्तेजाम...सुबह उठते...मंदिर जाते...नया नया कपड़ा पहन के जिम्मी सबको प्रणाम करता. तिल तिल बौ देबो? ये सवाल तीन पार पूछा जाता जिसका कि अर्थ होता कि जब तब शरीर में तिल भर भी सामर्थ्य रहेगा इस तिल का कर्जा चुकायेंगे...या ऐसा ही कुछ. फिर दही चूड़ा खाते घर में सब कोई और शाम का पार्टी का तैय्यारी शुरू हो जाता.

तिलसकरात एक बहुत बड़ा उत्सव होता जिम्मी के बर्थडे के कारण...होली या दीवाली जैसा जिसमें पापा के सब दोस्त, मोहल्ले वाले, पापा के कलीग, घर के लोग...सब आते. शाम को बड़ा का केक बनाती मम्मी...कुछ साथ आठ केक एक साथ मिला के, काट के, आइसिंग कर के. घर की सजावट का जिम्मा छोटे मामाजी का रहता. सब बच्चा लोग को पकड़ के बैलून फुलवाना...फिर पंखा से उसको बांधना...पीछे हाथ से लिख के बनाये गए हैप्पी बर्थडे के पोस्टर को टांगना. ऐसे शाम पांच बजे टाइप सब कोई तैयार हो जाते थे.

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आज सुबह से उन्ही दिनों में खोयी हूँ...यहाँ बंगलौर में कुल जमा दो लोग हैं...घर से चूड़ा आया हुआ है...अभी जाउंगी दही खरीदने...दही चूड़ा खा के निपटाउंगी. जिमी के लिए कल शर्ट खरीद के लाये हैं...उसको कुरियर करेंगे...सोच रहे हैं और क्या खरीदें उसके लिए.

सारे चेहरे याद आ रहे हैं...सब पुराने दोस्त...लक्की भैया, रोजी दीदी, नीलू, छोटू-नीशू, लाली, रोली, मिक्की, राहुल, बाबु मामाजी, छोटू मामाजी, सीमा मौसी, इन्द्रनील, नीति, आकाश, नीतू दीदी, शन्नो, मिन्नी, मनीष, आभा, सोनी...कितने लोग थे न उस समय...कितनी मुस्कुराहटें. अपने लिए दो फोटो लगा रहे हैं...हालाँकि ये वाला पटना का है...पर मेरे पास यही है.


यहाँ से तुमको ढेर सारा आशीर्वाद जिमी...खूब खूब खुश रहो...आज तुमको और पापा को बहुत बहुत मिस कर रहे हैं हम. 

13 January, 2012

न दिया करो उधार के बोसे...इनका सूद चुकाते जिंदगी बीत जाती है

'बहुत खुश हूँ मैं आज...खुश...खुश...खुश...खुश...बहुत बहुत खुश...आज जो चाहे मांग लो!' प्रणय बीच सड़क पर ठिठका खड़ा था और वो उसके कंधे पर एक हाथ रखे उसके उसे धुरी बना कर उसके इर्द गिर्द दो बार घूम गयी और फिर उसके बायें कंधे पर एक हाथ रख कर झूलते हुए उसकी आँखों में आँखें डाल मुस्कुरा उठी.

'अच्छा, कितनी खुश?'
कहते हुए प्रणय ने उसके माथे पर झूल आई लटों को हटाया..पर लड़की ने सर को झटका दिया और शैम्पू किये बाल फिर से उसके कंधे पर बेतरतीब गिर उठे और खुशबू बिखर गयी.

'इतनी कि अपना खून माफ़ कर दूं...'
लड़की फिर से उसकी धुरी बना के उसके इर्द गिर्द घूमने लगी थी, जैसे केजी के बच्चे किसी खम्बे को पकड़ पर उसके इर्द गिर्द घूमते हैं...लगातार.

प्रणय ने फिर उसकी दोनों कलाइयाँ अपने एक हाथ में बाँधीं और दुसरे हाथ से उसके चेहरे पर से बिखरे हुए बाल हटाये और पूछा...'हाँ, अच्छा...तब तो सच में वो दोगी जो मांग लूं?

लड़की खिलखिला के हंस उठी...'पहले हाथ छोड़ो मेरा...मैं आज रुक नहीं सकती...और मेरे हाथ पकड़ लोगे तो मैं बात नहीं कर पाउंगी...तुम जानते हो न...अच्छा जाने दो...हाथ छोड़ो ना...अच्छा ...बोलो...तुम्हें क्या चाहिए?'

'कैन आई किस यू?'

लड़की एकदम स्थिर हो गयी...गालों से लेकर कपोल तक दहक गए...होठ सुर्ख हो गए...एकदम से चेहरे पर का भाव बदल गया...अब तक जो शरारत टपक रही थी वहां आँखें झुक गयीं और आवाज़ अटकने लगी...

'जान ले लो मेरी...कुछ भी क्या...छोड़ो मुझे, जाने दो!' मगर उसने फिर हाथ छुड़ाने की कोशिशें बंद कर दी थीं...और एकदम स्थिर खड़ी थी.

'झूठी हो एक नंबर की, अभी तो बड़ा बड़ा भाषण दे रही थी, खून माफ़ कर देंगे...जाने क्या क्या!' प्रणय ने छेड़ा उसे...उसके हाथ अब भी उसकी कलाइयाँ बांधे हुए थे...और दूसरा हाथ से उसने उसकी ठुड्डी पकड़ रखी थी ताकि उसका चेहरा देख सके.

'उहूँ...'

'अच्छा चलो, हाथ छोड़ रहा हूँ...देखो भागना मत...वरना बहुत दौड़ाउंगा और जबरदस्ती किस भी करूँगा...तुम सीधे कोई बात के लिए कब हाँ करती हो...ठीक?' लड़की ने हाँ में सर हिलाया था तो प्रणय से कलाइयाँ ढीली की थीं...लड़की वैसे ही खड़ी रही...कितनी देर तक...भूले हुए कि प्रणय ने उसका हाथ नहीं पकड़ रखा है अब. प्रणय उहापोह में था कि इसे हुआ क्या...एक लम्हे उसका दिल कर भी रहा था उसे चूम ले...कल जा भी तो रही है...जाने कब आएगी वापस...आएगी तो प्यार रहेगा भी कि नहीं...लॉन्ग डिस्टेंस रिलेशन यू नो...मगर पिंक कलर के कपड़ों में वो गुड़िया जैसी लग रही थी...सेब जैसे लाल गालों वाली... इतनी मासूम...इतनी उदास और इतनी नाज़ुक कि उसे लगा कि टूट जायेगी. उसे ऐसे देखने की आदत नहीं थी...वो हमेशा मुस्कुराती, गुनगुनाती, चिढ़ाती, झगड़ा करती ही अच्छी लगती थी. उसे अपराधबोध भी होने लगा कि उसने जाते वक़्त उसे क्या कह दिया...क्या यही चेहरा याद रखना होगा...आँख में अबडब आंसू भी लग रहे थे.

फिर एकदम अचानक लड़की उसके सीने से लग के सिसक पड़ी...प्रणय ने उसे कभी भी रोते देखा ही नहीं था...उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या करे...माथे पर थपकियाँ दे रहा था...पीठ सहला रहा था...बता रहा था कि मत रो...किसलिए मत रो उसे मालूम नहीं...ये भी नहीं कह पा रहा था कि वापस तो आओगी ही...मैं मिलने आऊंगा...कुछ भी नहीं...बस वो रो रही थी और प्रणय को चुप कराना नहीं आता था. बहुत देर सिसकती रही वो, उसके नाखून कंधे में चुभ रहे थे...शर्ट गीली हो रही थी...फिर उसने खुद ही खुद को अलग किया.

'तुम्हें मालूम नहीं है मैं तुम्हें कितना मिस करुँगी...तुम्हें ये मालूम है क्या कि मैं भी तुमसे प्यार करती हूँ?'

फिर उसने लड़की ने हाथ के इशारे से इधर आओ कहा...प्रणय को लगा अब फिर कोई सेक्रेट बताएगी और फिर ठठा के हँसेगी लड़की...पर लड़की ने अंगूठे और तर्जनी से उसकी ठुड्डी पकड़ी और दायें गाल पर किस करते हुए कहा...'दूसरा वाला उधार रहा, आ के ले लेना मुझसे कभी'.
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उधर लड़की भी सालों साल सोचती रही कि अगर वो उससे प्यार करता था तो सवाल क्यूँ पूछा...सीधे किस क्यूँ नहीं किया? सोचना ये भी था कि वो कभी आया क्यूँ नहीं लौट के...

पर जिंदगी जो होती है न...कहती है कुछ उधार बाकी रहने चाहिए...इससे लोग आपको कभी भूलते नहीं...प्रणय सोचता है यूँ भी उसे भूलना कौन सा मुमकिन था.


जाने क्यूँ हर साल के अंत में सर के सफ़ेद बाल गिनते हुए डायरी में लिखे इस सालों पुराने पन्ने को पढ़ ही लेता था...


कल ख्वाब में 
मेरे कांधे पर सर रख कर
सिसकते हुए 
उसने कहा
हम आज आखिरी बार बिछड़ रहे हैं

सुबह
मेरे बाएँ कांधे पर उभर आया था
उसके डिम्पल जितना बड़ा दाग
ठीक उसकी आँखों के रंग जितना...सियाह! 

उसे चाँद ने सबसे छुपा के गढ़ा था...

वो चाँद की एक ऐसी कला थी जिसे चाँद ने सबसे छुपा के गढ़ा था...अपनी बाकी कलाओं से भी...चांदनी से भी...लड़की नहीं थी वो...सवा सोलह की उम्र थी उसकी...सवा सोलह चाँद रातों जितनी.

उसे छुए बिना भी मालूम था  कि वो चन्दन के अबटन से नहाती होगी...चाँद पार की झीलों में...जबकि उसकी माँ उसकी आँखों में बिना काजल पारे उसे कहीं जाने नहीं देती होगी...माथे पर चाँद का ही नजरबट्टू लगाती थी...श्यामपक्ष के चाँद का. एक ही बार उसे करीब से देखा है...भोर के पहले पहर जंगल की किनारी पर चंपा के बाग़ में...मटमैले चंपा के फूल जमीन से उठा कर अपने आँचल में भरते हुए...चम्पई रंग की ही साड़ी में...चेहरे पर चाँद के परावर्तित प्रकाश से चमकती आँखें...सात पर्दों में छुपी...सिर्फ पलकों की पहरेदारी नहीं थी...उसकी आत्मा में झाँकने के लिए हर परदे के रक्षक से मिन्नतें करनी होंगी. 

कवि क्या किसी ने भी उसकी आवाज़ कभी नहीं सुनी थी...बातों का जवाब वो पलकें झपका के ही देती थी...हाँ भ्रम जरूर होता था...पूर्णिमा की उजास भरी रातों में जब चांदनी उतरती थी तो उसके एक पैर की पायल का घुँघरू मौन रहने की आज्ञा की अवहेलना कर देता था...कवि को लगता था की बेटी के लिए आत्मजा कितना सही शब्द है, वो चाँद की आत्मा से ही जन्मी थी. कई और भी बार कवि को उसकी आवाज़ के भ्रम ने मृग मरीचिका सा ही नींद की तलाश में रातों को घर से बाहर भेजा है. जेठ की दुपहर की ठहरी बेला में उस छोटे शहर के छोटे से कालीबाड़ी में मंदिर की सबसे छोटी घंटी...टुन...से बोलती है तो कवि के शब्द खो जाते हैं, उसे लगता है कि चाँद की बेटी ने कवि का नाम लिया है. 

मंदिर के गर्भगृह में जलते अखंड दिए की लौ के जैसा ठहराव था उसमें और वैसी ही शांत, निर्मल ज्योति...उस लौ को छू के पूजा के पूर्ण होने का भाव...शुद्ध हो जाने जैसा...ऐसी अग्नि जिसमें सब विषाद जल जाते हों. कवि ने एक बार उसे सूर्य को अर्घ्य देते हुए देखा था...उसकी पूर्णतयः अनावृत्त पीठ ने भी कवि में कोई कामुक उद्वेलन उत्पन्न नहीं किया...वो उसे निर्निमेष देखता रहा सिर्फ अपने होने को क्षण क्षण पीते हुए. 

पारिजात के फूलों सी मद्धम भीनी गंध थी उसकी...मगर उसमें से खुशबू ऐसी उगती थी कि जिस पगडण्डी से वो गुजरी होती थी उसके पांवों की धूल में पारिजात के नन्हे पौधे उग आते थे...श्वेत फूल फिर दस दिशाओं को चम्पई मलमल में पलाश के फूलों से रंग कर संदेशा भेज देते थे कि कुछ दिन चाँद की बेटी उनके प्रदेश में रहेगी.








कवि ने एक बार कुछ पारिजात के फूल तोड़ लिए थे...एक फूल को सियाही में डुबा कर चाँद की बेटी का नाम लिखा था काष्ठ के उस टुकड़े पर जिसपर वो रचनात्मक कार्य करता था...उसका नाम अंतस पर तब से चिरकाल के लिए अंकित हो गया है 'आहना'. 

12 January, 2012

जिंदगी की सबसे खूबसूरत चीज़...मोशन ब्लर

लड़की क्या थी पाँव में घुँघरू बांधे हवाएं थीं...सुरमई शाम को आसमान से उतरती चांदनी का गीत थी...बारिश के बाद भीगे गुलमोहर से टप-टप टपकती संतूर का राग थी...कहीं रूकती नहीं...पैर हमेशा थिरकते रहते उसके. गिरती-पड़ती उठ के खिलखिलाती...कैनवास उठा के रंग भरती...पानी से खेलती...

जिंदगी जैसी थी वो...कपड़े भी सुखाती रहती तो उसमें ऐसी लय थी कि उसे देखना अद्भुत लगता था...जैसे जादू की छड़ी थी लड़की, जिधर घूमती आँखों में सितारे चमक उठते...वो एक थिरकन थी...सर से पैर तक नृत्य की कोई मुद्रा जिसे देखते हुए कभी दिल न भरे...और वो कौन सा गीत गुनगुनाती रहती थी हमेशा...उसके होठ एक दूसरे पर टिके बहुत कम रहते...हर कुछ अंतराल पर अलग होते रहते...कभी गाती, कभी बोलती कुछ...कभी किसी को यूँ ही आवाज़ दे कर बुलाती...कभी खुद से बातें करती.

लड़की सामने रहे तो समझ नहीं आये कि कहाँ देखूं...आँखें चंचल...काली...और जिंदगी से लबरेज़...चेहरा चमकता हुआ...गोरे रंग पर गुलाबी...कि जैसे पूजा के लिए कांसे की परात में रखे दूध को किसी ने हलके सिन्दूर के हाथों छू दिया हो...इतनी खूबसूरत कि छूने के पहले धुले हाथ तौलिये से सुखा लिए जाएँ.

यूँ उसका चेहरा देखो तो कुछ भी सुन्दर नहीं था...न हिरनी की तरह बड़ी आँखें थी...न सुतवां नाक थी...पर चेहरे पर पानी इतना था कि आँखें हटती नहीं थीं. चंचल इतनी थी कि एक मिनट ठहरती ही नहीं नहीं...उसे देख कर सोचा करता था कि उसकी फोटो खींचूंगा तो ब्लर आएगी...उसे स्थिर रहना आता ही नहीं था...मान लो स्पोर्ट्स मोड में ठहर के आ भी गयी एक पल तो उसके चेहरे पर जो इश्क में डूबा अहसास हवाओं की तरह गुज़रता है उसे कैसे कैद करूँगा. इसलिए जितनी देर वो सामने रहती थी...मैं सामने ही रखता था उसे.

उसे हर चीज़ से प्यार था...कांच की चूड़ियों को धूप में घुमा घुमा के देखती कि उनसे आई धूप किस रंग की है...कभी खनखना के देखती कि चूड़ियों का गीत उसके मन के राग से मेल खाता है कि नहीं...दुपट्टा तो हमेशा हवा में लहराते ही चलती...उसका पारदर्शी दुपट्टा कभी गुलाबी, कभी नीला, कभी वासंती...कभी ऊँगली में लिपटा तो कभी हवाओं से गुफ्तगू करता हुआ...जिस दिन थोड़ी भी हवा चले उसका दुपट्टा उन्ही के संग कभी दादरा तो कभी कहरवा में ताल देता हुआ होता. उसे कितनी बार अकेले...बिना किसी धुन के आँगन में उन्मुक्त नाचते देखा...हाय...दिल पर क्या गुज़रती थी...इतना खूबसूरत कोई इतना खुल के कैसे नाच सकता है! उसे सब देखते थे...बार बार देखते थे...हवाएं...आसमान...बादल...और बारिश उफ़...बारिश तो उसे बांहों में ही भर लेती थी...वो भी मेरे सामने...मत पूछो दिल में क्या आग लगती थी!

सामने होती तो भी यकीन नहीं होता कि वो सच में है...सालों साल उसे देखने के बावजूद कभी हो नहीं पाया कि एक बार उसे छू कर देख सकूँ...आज बहुत साल बाद उसके शहर में आना हुआ है...बच्चों के स्कूल में एक फोटोग्राफी असैन्मेंट के लिए गया हूँ...मन तो शहर के उस पुराने घर में ही अटका हुआ है कि जिसके छज्जे पर से जिंदगी सी खूबसूरत उस ख्वाबों की लड़की को अपने कैमरे में कैद करने कि ख्वाहिश लिए जाना पड़ा था.

आज सामने देखता हूँ तो एक खुशबू में भीगा दुपट्टा दिखता है...इतने साल हो गए...उसके गाल का डिम्पल गहरा गया है...पर थिरकन वही है...एक नन्ही परी जैसी बच्ची को गोद में उठा कर गोल चक्कर काट रही है...बच्ची किलकारियां मार रही है...मुझे अब कैमरा अच्छे से इस्तेमाल करना आ गया है...इस एक लम्हा उसकी आँखों पर कैमरा फोकस करता हूँ...इतने सालों बाद इश्क से लबरेज़, जिंदगी में डूबे चेहरे एक फ्रेम में आये हैं...ये हैं जिंदगी की सबसे खूबसूरत चीज़...मोशन ब्लर. 

जाने वाले को टोकते नहीं हैं...

उसके यहाँ घर से निकलते हुए 'कहाँ जा रहे हो' पूछना अशुभ माना जाता था. उसपर घर के मर्द इतने लापरवाह थे कि कई बार शहर से बाहर भी जाना होता था तो माँ, भाभी या पत्नी को बताये बिना, बिना ढंग से कपड़े रखे हुए निकल जाते थे. घर की औरतें परेशान रहती थीं...कि ये मोबाइल से बहुत पहले की बात थी. उन दिनों कई कई दिनों के इंतज़ार के बाद एक भूली भटकी चिट्ठी आती थी...कि मैं दोस्त की शादी में आरा आया हूँ, अभी कुछ दिन यहीं रुकूंगा. घर की औरतें इतने में हरान परेशान होने लगती थीं...उनको मालूम था कि घर से बाहर निकला है तो हज़ार परेशानियाँ है...उनके परेशान होने के आयाम में उसका अपहरण होकर उसकी शादी हो जाने से लेकर...उसका नदी में तैरना और डूब जाना तक शामिल था.

उसके माथे में भंवर थे...भंवर हमारे तरफ कहते हैं जब सर के बाल एक खास तरह से गोल घुमते हुए निकलते हैं, कहते हैं कि जिस इंसान के माथे में भंवर हो उसकी मृत्यु पानी में डूब के होगी. उसे पोखर, तालाब, कुआँ, नदी, समंदर सब जगह से दूर रखा जाता था...यूँ करना तो ऐसा चाहिए था कि जिस व्यक्ति को डूबने का डर हो उसे खास तौर से तैरना सिखाया जाए मगर अंधविश्वास हमेशा तर्क पर भारी पड़ता था. बाढ़ उन गाँवों में एक मान्यताप्राप्त स्थिति थी...साल में एक बार उन्हें पता था कि सब बह जाएगा और फिर से बसना होगा. असल बेचैनी का जन्म तो तब होता था जब ऐसा कोई लड़का घर से बाढ़ के वक़्त बिना बताये निकल जाए...और वो कहाँ गया है इसका अंदाजा मात्र इस बात से लगाया जा सके कि उसने किस ओर का रुख किया था. बाढ़ के समय चिट्ठियां भी नहीं आती थीं...किस पते पर आतीं जब पूरा गाँव ही अपनी जगह न हो.

ऐसे ही खोये, भुतलाये हुए गाँव में एक लड़का गर्मी के दिनों में नहर वाले खेत के पास के पुआल के टाल पर लेटा हुआ हुआ था...नीम के पेड़ की छाँव थी और नहर की ओर से हवा आती थी तो भीगे आँचल सी ठंढी हो जाती थी इसलिए उस कोने में बाकी गाँव के बनिस्पत गर्मी काफी कम थी. चेहरे को गमछे से ढके हुए वो सोच रहा था कि ऐसे ही बाढ़ वाले दिन अगर स्कूल की उस लड़की का हाथ पकड़ पर किसी नाव पर बैठा ले और मल्लाह को पिछले पूरे साल के जोड़े हुए २० रुपये दे तो क्या मल्लाह उसे ऐसी जगह पहुंचा देगा जहाँ से चिट्ठियां गिराने का कोई डाकखाना न हो...अगर उसी मल्लाह को अपना चाँदी का कड़ा भी दे दे तो क्या ऐसा होगा कि वो घर पर किसी को ना बताये कि वो किस गाँव चला आया है. यहाँ तक तो कोई तकलीफ नहीं दिख रही थी...मल्लाह उसे ऐसा व्यक्ति लगता था जो उसकी बात मान जाएगा...हँसते चेहरे वाले उस मल्लाह के गीत में एक ऐसी टीस उभरती थी जो लड़के को लगता था कि सिर्फ उसे सुनाई देती थी.

समस्या अब बस ये थी कि लड़की क्या करेगी ऐसे में...उसे अभी तक उसका नाम भी नहीं मालूम था...दुनियादारी का इतना पता था बस कि वो अगर घर से घंटों बाहर रहे तो कोई नहीं पूछता कि वो कहाँ गया है, कब आएगा...मगर उसकी ही बहनें कहाँ जा रही हैं, किसके साथ जा रही हैं, कितनी देर में आयेंगे इसकी पूरी जानकारी घर में रहती थी...कोई लड़की कभी भी खो नहीं सकती थी...लड़कियां दिख भी जाती थीं भीड़ में अलग से...लड़के बाढ़ में, पानी में, शहर में, शादियों में, मेले में भले गुम हो जाएँ लड़कियां कभी गुम नहीं होतीं...उन्हें हमेशा ढूंढ लिया जाता. उसे तो अब तक लड़की का नाम भी नहीं पता था...उसने कभी उसकी आवाज़ भी नहीं सुनी थी...लड़की को सर झुकाए क्लास में आते जाते, चुप खाना खाते देखते हुए उसके दिल में बस एक हसरत जागने लगी थी कि वो उसका दायीं कलाई पकड़ के मरोड़ दे कुछ ऐसे कि वो हाथ छुड़ा भी न सके...वो सुनना चाहता था कि वो ऐसे में कैसे चीखती है...हालाँकि उसे लगता था कि तब भी लड़की एक आवाज़ नहीं निकालेगी...दांत के नीचे होठ भींच लेगी जब तक कि खून न निकल आये और वो खुद ही उसकी  नील पड़ी कलाइयाँ छोड़ दे. ये लड़कियों को दर्द कैसे नहीं होता...या कि फिर दर्द होने पर रोती क्यूँ नहीं हैं.


ऐसे ही सपने बुनने वाली खाली दोपहरों के बाद वाली एक दोपहर के बाद लड़का कहीं नहीं दिखा...मल्लाह ने बहुत सालों कोई गीत नहीं गाया...लड़की की उसी लगन में बहुत दूर के गाँव शादी हो गयी...बगल के गाँव का एक पागल फकीर लोगों को चिल्ला चिल्ला के बताता रहा कि पूरनमासी की रात नदी का पानी खून की तरह लाल हो गया था...उसके घर की औरतों का इंतज़ार उनकी आँखों में ही ठहर गया.

इस किस्से के काफी सालों बाद उस लड़की की बेटी हुयी...उसका रूप ऐसे दमकता था कि वो बिना दुपट्टे के कहीं नहीं जाती थी...आज वो एक लड़के को इमली के पेड़ के नीचे बैठी ये कहानियां सुना रही है...कहते हैं इमली के पेड़ पर भूत रहता है...लड़की को जाने कैसे यकीन था कि इस पेड़ पर एक आत्मा है जो उसे कभी नुक्सान नहीं पहुंचाएगी...उसका ख्याल रखेगी. लड़के को रात की ट्रेन पकड़ के शहर को जाना था...वो सोच नहीं पा रहा था कि कैसे बताये...उसने सारी बातें तो सुन ली पर उसे मालूम नहीं था कि उसके जाने के पहले लड़की सवाल भी पूछ उठेगी कि जिसका उसके पास कोई जवाब नहीं होगा...
'मुझे छोड़ के जा रहे हो?'

10 January, 2012

तुम तो जानते हो न, मुझे तुमसे बिछड़ना नहीं आता?

जान,
अच्छा हुआ जो कल तुम्हारे पास वक़्त कम था...वरना दर्द के उस समंदर से हमें कौन उबार पाता...मैं अपने साथ तुम्हारी सांसें भी दाँव पर लगा के हार जाती...फिर हम कैसे जीते...कैसे?

बहुत गहरा भंवर था समंदर में उस जगह...पाँव टिकाने को नाव का निचला तल भी नहीं था...डेक पर थोड़ी सी जगह मिली थी जहाँ उस भयंकर तूफ़ान में हिचकोले खाती हुयी कश्ती पर खड़ी मैं खुद को डूबते देख रही थी. कहीं कोई पतवार नहीं...निकलने का कोई रास्ता नहीं...ऐसे में तुम उगते सूरज की तरह थोड़ी देर आसमान में उभरे तो मेरी बुझती आँखों में थोड़ी सी धूप भर गयी...उतनी काफी है...वाकई.

अथाह...अनन्त...जलराशि...ये मेरे मन का समंदर है, इसके बस कुछेक किनारे हैं जहाँ लोगों को जाने की इज़ाज़त है मगर तुम ऐसे जिद्दी हो कि तुम्हें मना करती हूँ तब भी गहरे पानी में उतरते चले जाते हो...कितना भी समझाती हूँ कि उधर के पानी का पता नहीं चलता, पल छिछला, पल गहरा है...और तुम...तुम्हें तो तैरना भी नहीं आता...जाने क्या सोच के समंदर के पास आये थे...क्या ये कि प्यास लगी है...उफ़ मेरी जान, क्या तुम्हें पता नहीं है कि खारे पानी से प्यास नहीं बुझती?

मेरी जान, तुम बेक़रार न हो...मैंने कल खुदा की दूकान में अपनी आँखों की चमक के बदले तुम्हारे जिंदगी भर का सुकून खरीद लिया है...यूँ तो सुकून की कोई कीमत नहीं हो सकती...कहीं खरीदने को नहीं मिलता है...पर वैसे ही, आँखों की चमक भी भला किस बाज़ार में बिकी है आजतक...उसमें भी मेरी आँखें...उस जौहरी से पूछो जिसने मेरी आँखों के हीरे दीखे थे...कि कितने बेशकीमती थे...बिलकुल हीरे के चारों पैमाने पर सबसे बेहतरीन थे  'The four Cs ', कट, कलर, क्लैरिटी और कैरट...बिलकुल परफेक्ट डायमंड...५८ फेसेट्स वाले...जिसमें किसी भी एंगल से लाईट गिरे वापस रेफ्लेक्ट हो जाती थी...एकदम पारदर्शी...शुद्ध...उनमें आंसू भर की भी मिलावट नहीं थी...और कैरट...उस फ़रिश्ते से पूछे जिसने मेरी आँखों से ये हीरे निकाले...खुदा के बाज़ार में ऐसा कोई तराजू नहीं था कि जो तौल सके कि कितने कैरट के हैं हीरे. सुना है मेरी आँखों की चमक के अनगिन हिस्से कर दिए गए हैं...दुनिया के किसी हिस्से में ख़ुशी कम होती है तो एक हिस्सा वहां भेज दिया जाता है...आजकल खुदा को इफरात में फुर्सत है.

मेरी आँखें थोड़ी सूनी लगेंगी अब...पर तुम चिंता मत करना...मैं तुमसे मिलने कभी नहीं आ रही...और जहाँ ख़ुशी नहीं होती वहां गम हो ऐसा जरूरी तो नहीं. तुम जिस जमीन से गुज़रते हो वहां रोशन उजालों का एक कारवां चलता है...मैं उन्ही उजालों को अपनी आँखों में भर लूंगी...जिंदगी उतनी अँधेरी भी नहीं है...तुम्हारे होते हुए...और जो हुयी तो मुझे अंधेरों का काजल बना डब्बे में बंद करना आता है.

कल का तूफ़ान बड़ा बेरहम था मेरी जान, मेरी सारी सिगरेटें भीग गयीं थी...माचिस भी सील गयी...और दर्द के बरसते बादल पल ठहरने को नहीं आते थे...मेरी व्हिस्की में इतना पानी मिल गया था कि नशा ही नहीं हो रहा था वरना कुछ तो करार मिलता...तुम भी न...पूछते हो कि मैंने पी रखी है...उफ़ मेरे मासूम से दिलबर...तुम क्या जानो कि किस कदर पी रखी है मैंने...किस बेतरह इश्क करती हूँ तुमसे. खुदा तुम्हें सलामती बक्शे...तुम्हारे दिन सोने की तरह उजले हों...तुम्हारी रातों को महताब रोशन रहे, तारे अपनी नर्म छाँव में तुम्हारे ख्वाबों को दुलराएँ.

मैं...मेरी जान...इस बार मुझे इस इश्क में बर्बाद हो जाने दो...टूट जाने दो...बिखर जाने दो...मत समेटो मुझे अपनी बांहों में कि इस दर्द, इस तन्हाई को जीने दो मुझे...ये दर्द मुझे पल पल...पल के भी सारे पल तुम्हारी याद दिलाता है...मेरी जान, ये दर्द बहुत अजीज़ है मुझे.









जान, अच्छा हुआ जो तुम्हारे पास वक़्त कम था...उस लम्हा मौत मेरा हाथ थामे हुयी थी...तुम जो ठहर जाते मैं तुमसे दूर जैसे जा पाती...तुम तो जानते हो न, मुझे तुमसे बिछड़ना नहीं आता?

दुआएं,
वही...तुम्हारी.

08 January, 2012

खुदा तुम्हारी कलम को मुहब्बत बख्शे...

मैं किताबों की एक बेहद बड़ी दूकान में खड़ी थी...दूर तक जाते आईल थे जिनमें बहुत सी किताबें थीं...अक्सर उदास होने पर मैं ऐसी ही किसी जगह जाना पसंद करती हूँ...किताबों से मेरी दोस्ती बहुत पुरानी है इसलिए उनके पास जा के कोई सुकून ढूँढने की ख्वाहिश रखी जा सकती है.

उन लम्बे गलियारों में बहुत से रंग थे...अलग कवर से झांकते चरित्र थे...मैं हमेशा की तरह उड़ती सी नज़र डाल कर डोल रही थी कि आज कौन सी किताब बुलाती है मुझे. मेरा किताबें पसंद करना ऐसा ही होता है...जैसे अजनबी चेहरों की भीड़ में कोई चेहरा एकदम अपना, जाना पहचाना सा होता है...कोई चेहरा अचानक से किसी पुराने दोस्त के चेहरे में मोर्फ भी कर जाता है. कपड़े, मुस्कराहट, आँखें...दिल जिसको तलाशता रहता है, आँखें हर शख्स में उसका कोई पहलू देख लेती हैं...

किताबें यूँ ही ढूंढती हैं मुझको...हाथ पकड़ पर रोक लेती हैं...आग्रह करती हैं कि मैं पन्ने पलट उन्हें गुदगुदी लगाऊं...फिर कुछ किताबें ऐसी होती हैं कि उँगलियाँ फिराते ही खिलखिलाने लगती हैं...कुछ हाथ से छूट भागती हैं, कुछ गुस्सा दिखाती हैं और कुछ बस इग्नोर करना चाहती हैं...तो कुछ किताबें ऊँगली पकड़ झूल जाती हैं कि मुझे घर ले चलो...तब मुझे तन्नु याद आती है...जब तीनेक साल की रही होगी तो ऐसे ही हाथ पकड़ के झूल जाती थी कि पम्मी मौती(मौसी) मुझे बाज़ार ले चलो. मुझे वैसे भी किताबों का अहसास हाथ में अच्छा लगता है...लगता है कि किसी अनजान आत्मीय व्यक्ति से गले मिल रही हूँ...जिसने बिना कुछ मांगे, बिना कुछ चाहे बाँहें फैला कर अपने स्नेह का एक हिस्सा मेरे नाम कर दिया है. 

मेरे दोस्त कभी नहीं रहे, स्कूल...कॉलेज कहीं भी...ठीक कारण मुझे नहीं पता बस ऐसा हुआ कि कई साल अकेले लंच करना पड़ा है...ऐसे में दो ही ओपशंस थे...या तो खाना ही मत खाओ या कोई किताब खोल लो और उसके किरदार को साथ बुला लो बेंच पर और उसके साथ पराठे बाँट लो. अब भूखे रहना भी कितने दिन मुमकिन था...तो कई सारे किरदार ऐसे रहे हैं जिन्होंने बाकायदा मेरे साथ दोपहर का लंच किया है. हाँ वहां भी कोई मेरा दोस्त नहीं बना कि जिसका नाम याद हो...कभी भी एक किताब को पढ़ने में तीन-चार घंटे से ज्यादा वक़्त नहीं लगा. बचपन से पढ़ने की आदत का नतीजा था कि पढ़ने की स्पीड हमेशा बहुत अच्छी रही थी. किताबों में अगर एकलौता दोस्त कोई है तो हैरी पोटर...इस लड़के ने कितनी जगहें मेरे साथ घूमी हैं गिनती याद नहीं. 

पटना में पुस्तक मेला लगता था घर के बगल पाटलिपुत्रा कालोनी में...उतनी सारी किताबों को एक साथ देखना ऐसा लगता था जैसे घर में शादी-त्यौहार पर सारे रिश्तेदार जुट आये हों...कुछ दूर के जिनसे सालों में कभी एक बार मिलना होता है. ऐसा कोई स्टाल नहीं होता था जिसमें नहीं जाते थे...कितना कुछ तो ऐसे ही देख के खुश हो जाते थे भले ही किताब न खरीद पाएं...बजट लिमिटेड रहता था. किताबों को देख कर...छू कर खुश हो जाते थे. किताबों का ख़ुशी के साथ एक धागा जुड़ गया था बचपन से ही. 

आज मैं बस ऐसे ही एक नयी किताब से दोस्ती करने गयी थी...ब्लाइंड डेट जैसा कुछ...कि आज मुझे जिस किताब ने बुलाया उसकी हो जाउंगी. कितनी ही देर नज़र फिसलती रही...कोई अपना न दिखा...किसी ने आवाज़ नहीं दी...किसी ने हाथ पकड़ के रोका नहीं...मैं उस किताबों की बड़ी सी दूकान में तनहा खड़ी थी...ऐसे ही ध्यान आया कि मोबाईल शायद साइलेंट मोड पर है...उसे देखा तो लाल बत्ती जल रही थी...फेसबुक पर देखा तो कुछ दिलफरेब पंक्तियाँ दिख गयीं...

वहीं किताबों से घिरे हुए...मोबाईल पर ब्लॉग खोला और सारी किताबें खो गयीं...रूठ गयीं...मुझे छोड़ कर चली गयीं...मेरे पास कुछ शब्द थे...बेहद हसीन बेहद अपने...और अगर ये मान भी लूं कि ये शब्द मेरे लिए नहीं हैं तो भी सुकून मिलता है...कि उसे जानती हूँ जिसने ये ताने बाने बुने हैं. मना लूंगी किताबों को...बचपन की दोस्ती में डाह की जगह नहीं होती.

उस लम्हा, वहाँ आइल में खड़े खड़े, किताबों से घिरे हुए...तुम्हारे शब्दों ने बाँहें फैलायीं और मुझे खुद में यूँ समेटा कि दिल भर आया...ऐसे कैसे लिखते हो कि शब्द छू लेते हैं स्क्रीन से बाहर निकल कर. खुदा तुम्हारी कलम को मुहब्बत बक्शे..दिल से तुम्हारे लिए बहुत सी दुआ निकलती है दोस्त! ऐसे ही उजला उजला सा लिखते रहो...कि इन शब्दों की ऊँगली पकड़ कर कितने तनहा रास्तों का सफ़र करना है मुझे...दुआएं बहुत सी तुम्हारे लिए...

खास तुम्हारे लिए उस लम्हे को कैद कर लिया है...देखो मैं यहीं खड़ी थी...कि जब तुम्हारे शब्दों ने पहले गले लगाया था और फिर पूछा था...मुझसे दोस्ती करोगी?

07 January, 2012

धानी, तुम्हारे वादों सा कच्चा

यादों का संदूक खोल
सबसे ऊपर मिलेगा
करीने से तह लगाया हुआ
गहरे लाल रंग का
लव यू

उसके ठीक नीचे
हलके गुलाबी रंग में बुना
मिस यू
और फिर थोड़े गहरे गुलाबी रंग में
मिस यू वेरी मच

बायीं तरफ रखे हैं
उसके ख़त जो उसने लिखे नहीं
पीले पड़ते हुए, सालों से
दायीं तरफ रखे हैं
मेरे ख़त जो मैंने गिराए नहीं
फूलों से महकते हुए, सालों से

सफ़ेद, कि जैसे बादल के फाहे
निर्मल सा स्नेह भी रखा है
हरा, सावनी नेहभीगा
लड़कपन के झूले सा बेतरतीब
वासंती, तुम्हारे इश्क के पागलपन सा
रेशमी, काँधे से पल पल सरकता

जामुनी, हमारी तकरारों सा
फिरोजी, तुम्हारी मनुहारों सा
धूसर, हमारे घर सा पक्का
धानी, तुम्हारे वादों सा कच्चा
अमिया सा खट्टा रंग कोई
छुए मन अनगढ़ राग कोई

इतने सारे सारे रंग
तुम्हारे इश्क से मेरे हो गए
इन सब पर लगा रखा है
सुरमई एक नज़रबट्टू सा
अबकी जो आओगे
मेरी आँखों से काजल मत चुराना
रोती आँखें बिना काजल के बड़ी सूनी लगती हैं 

कि जैसे महबूब की मुस्कुराती आँखें

अरे, ऐसे कैसे!
बताओ मुझे, कौन है वो दुष्ट
जो तुम्हारे रातों की नींद
सारी की सारी लेकर चल दिया
और अपने वालेट में सजा के रखता है
कि जैसे महबूब की मुस्कुराती आँखें

हद्द है...मना तो करो!
ऐसे कैसे तुम्हारे ख्वाबों पर
एकाधिपत्य हो जाएगा उसका
सल्तनत है...कोई छोटा शहर थोड़े है
होगा वो शहजादा अपने देश का
तुम कोई राजकुमारी से कम हो!

तौबा, ये मज़ाक था!
तुमने कह किया उससे प्यार नहीं है
और जो उसने यकीन कर लिया तो?
लौट के नहीं आया तो?
तुम्हें भूल गया तो?

पगली, तेरा क्या होगा!
ऐसे प्यार मत किया कर
मर जाएगी ऐसे ही एक दिन
कौन उबारेगा तुझे
जान दे तेरे लिए ऐसा कहाँ है?

न ना, कितने ख़त भेजोगी?
अबकी बार कासिद के साथ जा
ख़त सुना दे खुद ही
जवाब भी मांग लेना
कि उसके बाद कुछ दिन तो
रहेगा...चैन

चल, जाने दे!
रात लम्बी है
और यादें बहुत सी
शब्दों का गट्ठर खोल
नीचे कहीं मिलेगा
तह लगाया हुआ
'लव यू'
उसकी खुशबू में भीग
उसकी धुन पर थिरक 
उसकी उँगलियाँ पकड़  


और यूँ बेबाक मत हंस री लड़की 
फरिश्तों के दिल डोल जाते हैं 
खुदा तेरे इश्क को बुरी नज़र से बचाए!

जबकि लड़की को रूठना नहीं आता और लड़के को मनाना...

असित ने बड़े इत्मीनान से कॉफ़ी में दो चम्मच चीनी डाली और हल्का सा सिप लिया...चश्मे के शीशे पर भाप आ गयी  तो उसे उतार कर कुरते के कोने से पोंछा और फिर कुछ देर सामने की दीवार पर लगी पेंटिंग पर नज़रें टिकायीं. छवि थोड़ी उदास थी आज...वरना तो जिस लम्हे वो उसका नाम लेता था मुस्कुराने और चहकने लगती थी. सामने उसका पसंदीदा आयरिश कॉफ़ी का कप रखा था जो अब ठंढा होने चला था. दोनों चुप. यूँ असित और छवि मिलते थे तो असित अधिकतर चुप ही रहता था...सारे किस्से तो छवि के नाम होते थे.

'अब ये मेरी बारी है पूछने की कि तुम नाराज़ हो?' असित ने हथियार डाले थे. 
'डिपेंड्स'...छोटा सा जवाब.
'किस पर?'
'इस बात पर कि तुम्हें मनाना आता है कि नहीं!' 

इस छोटी सी बात से मुस्कुराहटें उगी और कैफे की ठहरी हुयी हवा में गीत के कुछ कतरे गूंजने लगे. दोनों खुले स्पेस में बैठे थे...कैफे की सामने की बालकनी में शाम के इस वक़्त कुछ लड़के बैंड प्रैक्टिस के लिए जुटते थे. असित को उनका म्यूजिक बहुत पसंद आता था. एक बार कॉलेज मैगजीन की लिए आर्टिकल लिखते हुए छवि ने इन्हें कवर भी किया था...जिस कैफे में दोनों बैठे थे ये कैफे भी उन्ही इत्तिफकों का एक उदाहरण था कि जिनसे जिंदगी जीने लायक होने लगती है. बैंड के लोग अपना एक पोर्टफोलियो बनाना चाहते थे और छवि का काम उन्हें पसंद था. उनकी एक प्रोफाइल शूट के सिलसिले में उसका असित से मिलना हुआ था...तब से वो इस कैफे में अक्सर मिलने लगे थे.

असित फ्रीलांस करता था...उसका चित्त बहुत चंचल था...ओगिल्वी, मुद्रा, JWT जैसी सारी अच्छी ऐड एजेंसीज में काफी साल काम करके उसका दिल भर गया था तो उसने फ्रीलान्सिंग शुरू कर दी थी. अब वो सिर्फ ऐसे प्रोजेक्ट उठाता जिसमें उसे कुछ थ्रिल मिलता...कुछ नया करने को, कुछ अलग. उसे शब्दों के साथ जादू करना आता था...वो उन्हें कठपुतलियों की तरह नचाता...उसके हाथ में जा कर साधारण शब्द भी चमक उठते थे जैसे की फिल लाईट मारी हो किसी ने चेहरे की परछाइयाँ छुपाने के लिए. लोग उसकी बहुत इज्ज़त करते थे...उसने हर क्षेत्र में लोगों को कई नए नामों से अवगत कराया था.

थोड़ा चुप्पा सा रहना, खुद में खोये रहना उसका स्वाभाव था पर उसके बेहतरीन काम और काम के प्रति दीवानगी ने धीरे धीरे  उसे बहुत ख्याति दिला दी थी फिर अचानक उसका कम बातें करना भी  उसके मिस्टीरियस 'औरा' का ही एक हिस्सा बन गया था. लोग उससे बातें करने में दस बार सोचते थे...जूनियर उसके सामने अनचाहे हकलाने लगते थे. इस औरा के कारण उसकी जिंदगी के लोग भी सिमटते जा रहे थे. ऐसे ही अचानक एक दिन छवि से मिलना हुआ था उसका...पल संजीदा, पल खुराफाती अजीब पहेली सी लड़की थी. फोटो शूट पर उसे देर तक ओबजर्व किया उसने...और घर लौट कर काफी सालों बाद कैनवास पर एक वृत्त बनाया था...छवि की बायीं गाल का डिम्पल.

छवि काम करती थी तो उसे खाने पीने कि सुध बुध नहीं रहती, घंटों फोटोशूट चलता रहता...ऐसे में असित ही उसे खींच कर कैफे लाता कि कुछ खा पी लो. कई बार उसके लिए मैगी या चोकलेट भी लेते आता...ये रोल रिवर्सल असित की समझ से बाहर था कि वो छवि का इतना ध्यान क्यूँ रखता है. शायद पहली बार उसे कोई अपने जैसा दिखा था...और छवि थी ही ऐसी...हर हमेशा गले में कैमरा लटका हुआ...जिंदगी को फ्रेम दर फ्रेम अनंत तक बांधे रखने की अमिट चाहना सी.

'पता है असित, मैं अपनी दोस्तों को कहती हूँ कि एक बार किसी फोटोग्राफर लड़के से जरूर प्यार करना चाहिए...एक तो लड़का इश्क में पागल, उसपर अच्छा फोटोग्राफर...तुम्हें मालूम भी न होगा कि तुम कितनी सुन्दर हो...तो एक बार इश्क की आँखों से खुद को देख लो...इसके अलावा कोई और तरीका नहीं है जानने का कि प्यार में लोग कितने खूबसूरत हो जाते हैं'

'और तुम छवि, तुमसे किसी लड़के को प्यार हुआ कि नहीं?'

'पता नहीं, पर तुम्हें देख कर दिल जरूर कर रहा है कि एक बार अपने कैमरे की नज़र से तुम्हें देखूं, फिर डर भी लगता है कि नज़र न लग जाए तुम्हें मेरी ही...मुझे अक्सर अपने सब्जेक्ट्स से प्यार होता रहता है. तुमसे हुआ तो मर ही जाउंगी...अब तक जीता, जागता इतना खूबसूरत सब्जेक्ट नहीं मिला है मुझे'

'अब इसपर क्या कहा जा सकता है...'

'कुछ नहीं, अपना एक दिन दोगे मुझे...एक पूरा चौबीस घंटों का...मैं तुम्हें बिना परेशान  किये...बिना तुम्हारी रिदम को बदले तुम्हें सहेजना चाहती हूँ...तुममें एक लय है...बेहद खूबसूरत सी, जैसे तुम्हारी कलम चलती है कागज़ पर, जैसे तुम उँगलियों में सिगरेट फंसाए टहलते रहते हो...सब कुछ...इतनी खूबसूरती खोनी नहीं चाहिए.'

'इतनी खूबसूरत तारीफें करोगी तो कोई ना कैसे कहता होगा तुम्हें'

फिर वो चौबीस घंटे साए की तरह छवि असित के साथ हो ली...उसे महसूस भी नहीं होता कि किस कोने से, किस एंगल से छवि उसे कैमरे में बंद कर रही है. सुबह की चाय...दोपहर जाड़े की धूप में बैठ कर लान में अपनी पसंद का कुछ लिखते हुए...कॉफ़ी बनाते हुए...असित को अब डर लग रहा था कि ये आँखें जब न होंगी तो ये दिन कितना याद आएगा. सुबह से शाम...सोसाईटी की कृत्रिम झील के किनारे मूंगफलियाँ खाना...सब कुछ रीता जा रहा था. सारे वक़्त असित इसी उहापोह में था कि ये वक़्त जो उसने सिर्फ मुझे कैमरा में बंद करने को माँगा है...काश ये ये वक़्त वो छवि से उसके साथ बिताने को मांग पाता.

रात गुजरी, भोर हुयी...आज रात सोते हुए उस छोटे से फ़्लैट में पहली बार असित को डर लग रहा था कि कहीं नींद में छवि का नाम न ले आज...कुछ अजीब न कह जाए. सुबह हुयी और कॉफ़ी पीने के साथ ही छवि के चौबीस घंटे पूरे हुए...असित ने हाथ बढ़ा कर कैमरा माँगा...कि देखूं क्या तसवीरें खींची है तो छवि ने एकदम गंभीर चेहरा बना कर कहा कि वो रील डालना भूल गयी थी कैमरा में. असित एक मिनट तो इतना गुस्सा हो गया कि कुर्सी से उठ गया...

'यानि कल पूरे वक़्त तुमने एक भी तस्वीर नहीं खींची...मेरा पूरा दिन बर्बाद किया तुमने...ये क्या मज़ाक है छवि?' उसे गुस्सा आ रहा था और गुस्से में उसका चेहरा गुलाबी होने लगा था...

छवि मुस्कुरा रही थी...'मुझे तुम्हारी तसवीरें कभी खींचनी ही नहीं थी...मुझे प्यार हुआ था तुमसे, तुम्हारी जिंदगी का एक दिन चाहिए था मुझे...और कैसे भी तो तुम देते नहीं'.

असित को समझ नहीं आ रहा था कि उसे हो क्या रहा था...एक सेकण्ड के लिए जैसे सब धुंधला गया और नर्म धूप में हंसती छवि का बाया डिम्पल नज़र आने लगा...उसने अचानक से छवि को अपनी बाहों में भर के उठाया और उसके होठों को चूम लिया. छवि को चक्कर सा आ गया और वो गिर ही जाती कि असित ने उसे अपनी बांहों में थामा...एक क्षण भर को जैसे बादल आये थे...अचानक से सब वापस साफ़ दिखने लगा. छवि का चहरा दहक उठा था...वो पैर पटकती घर से बाहर निकल गयी.

इसके ठीक एक हफ्ते बाद मिले थे दोनों...और छवि को टेस्ट करना था कि असित को मनाना भी आता है कि नहीं...


'अब ये मेरी बारी है पूछने की कि तुम नाराज़ हो?' असित ने हथियार डाले थे. 
'डिपेंड्स'...छोटा सा जवाब.
'किस पर?'
'इस बात पर कि तुम्हें मनाना आता है कि नहीं!'
'आई विल ट्राय माय बेस्ट...तुम भी रूठो तो सही...मुझे तुम्हारे सारे 'वीक स्पोट्स' पता हैं...
'अच्छा जी, चीटर, पहले से पता कुछ यूज करना अलाउड  नहीं है'
'और नहीं क्या...एक बड़ी सी डेरी मिल्क, एक गरमा गरम मैगी...और ज्यादा हुआ तो एक आधी बार बाईक पर घुमाना...तुम एकदम प्रेडिक्टेबल हो...हाउ बोरिंग!'
असित चिढ़ाने के मूड में आ गया था.
छवि ने जीभ निकल कर मुंह चिढ़ाया था.
'तुम्हें तो रूठना भी नहीं आता छवि...एकदम होपलेस हो...इत्ती जल्दी मान गयी...मैं तो कविता लिख के लाया था तुम्हारे लिए'
छवि ने हाथ बढ़ा कर झपटा था...डेढ़ बाई दो फीट के कागज़ में ब्रश के स्ट्रोक्स उसके चेहरे को और भी खूबसूरत बना रहे थे...कागज़ के नीचे, दायीं तरफ लिखा हुआ था...Marry me, will you?
'तुम भी न असित, ठीक से प्रोपोज करना भी नहीं आता...विल यू मैरी मी कहते हैं हैं न...'
'तुम्हें कौन सा ठीक से एक्सेप्ट करना आता है...तुम्हें बस एक शब्द कहना होता है 'यस' और तुम इतना भाषण दे रही हो'
'हे भगवान! कौन करेगा तुमसे शादी!'
'इस जनम में तो तुम करोगी...चलो हाथ बढ़ाओ...'और असित एक घुटने पर नीचे बैठ चुका था...क्लास्सिक प्रपोजल स्टाइल में.
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दोनों की शादी को पच्चीस साल हो गए...अब भी झगड़ा करते हैं दोनों जबकि लड़की को रूठना नहीं आता और लड़के को मनाना...बच्चे दोनों में सुलह करवाते हैं...
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जिंदगी में बहुत सी उलझनें हैं...कुछ तो खुद की हैं...कुछ हम बना लेते हैं...पर प्यार जैसी चीज़ में सीधे सिंपल सादगी से कहने से अच्छा कुछ नहीं होता. आज बस इतनी सी कहानी...कि आप यकीन करो सको कि इस बड़ी बेरहम सी दुनिया में लव की हैप्पी एंडिंग भी होती है.



Now that you know I believe in happy endings...will you confess that you love me?

कि किसने टाँके हैं मन के टूटे टुकड़े

मैं उसे रोक लेना चाहती थी
सिर्फ इसलिए कि रात के इस पहर
अकेले रोने का जी नहीं कर रहा था
मगर कोई हक कहाँ बनता था उस पर
मर रही होती तो बात दूसरी थी
तब शायद पुकार सकती थी
एक बार और


इन्टरनेट की इस निर्जीव दुनिया में
जहाँ सब शब्द एक जैसे होते हैं
मुझे उससे वादा चाहिए था
कि वो मुझे याद रखेगा
मेरे शब्दों से ज्यादा
मगर मैं वादा नहीं मांग सकती थी
सिर्फ मुस्कराहट की खातिर
वादे नहीं ख़रीदे जाते
मर रही होती तो बात दूसरी थी

मुझे याद रखना रे
मेरे टेढ़े मेरे अक्षरों में
फोन पर की आधा टुकड़ा आवाज़ से
तस्वीरों की झूठी-सच्ची मुस्कराहट से
और तुमसे जितना झूठ बोलती हूँ उससे
जो पेनकिलर खाती हूँ उससे
कि ज़ख्मों पर मरहम कहाँ लगाने देती हूँ
कि किसने टाँके हैं मन के टूटे टुकड़े

अगली बार जब मैं कहूँ चलती हूँ
मुझे जाने मत देना
बिना बहुत सी बातें कहे हुए
मैं शायद लौट के कभी न आऊँ
मर जाऊं तो भी
मुझे भूलना मत


मुझे जब याद करोगे
तो याद रखना ये वाली रात
जब कि रात के इस डेढ़ पहर
कोई पागल लड़की
स्क्रीन के इस तरफ
रो पड़ी थी तुमसे बात करते हुए
फिर भी उसने तुम्हें नहीं रोका

उसे लगता है मुझे एक कन्धा चाहिए
मैं कहती हूँ कि चार चाहिए
हँसना झूठ होता है
पर रोना कभी झूठ नहीं होता

उसने वादा तो नहीं किया
पर शायद याद रखेगा मुझे

दोहराती हूँ
बार बार, बार बार बार
बस इतना ही
मर जाऊं तो मुझे याद रखना...

06 January, 2012

कच्चे कश्मीरी सेब के रंग का हाफ स्वेटर

जब ख़त्म हो जायें शब्द मेरे
तुम उँगलियों की पोरों से सुनना


जहाँ दिल धड़कता है, ठीक वहीँ
जरा बायीं तरफ
अपनी गर्म हथेली रखो
इस ठिठुरते मौसम में
दिल थरथरा रहा है

मेरे लिए एक हाफ स्वेटर बुन दो
हलके हरे रंग का
कि जैसे कच्चे कश्मीरी सेब
और जहाँ दिल होता है न
जरा बायीं तरफ
एक सूरज बुन देना
पीला, चटख, धूप के रंग का

सुनो ना,
ओ खूबसूरत, पतली, नर्म, नाज़ुक
उँगलियों वाली लड़की
जब फंदे डालना स्वेटर के लिए
तो जोड़ों में डालना
मैं भी इधर ख्वाब बुनूँगा
तुम्हारी उँगलियों से लिपटे लिपटे

मेरे लिए स्वेटर बुनते हुए
तुम गाना वो गीत जो तुम्हें पसंद हो
और कलाइयों पर लगाना
अपनी पसंद का इत्र भी
फिर कुनमुनी दोपहरों में
मेरे नाम के घर चढ़ाते जाना

हमारा प्यार भी बढ़ता रहेगा
बित्ता, डेढ़ बित्ता कर के
कि हर बार, मेरी पीठ से सटा के
देखना कि कितना बाकी है
मुझे छूना उँगलियों के पोरों से

एक दिन जब स्वेटर पूरा हो जाएगा
ये स्वेटर जो कि है जिंदगी
तुम इसके साथ ही हो जाना मेरी
और मैं तुम्हारे लिए लाया करूंगा
चूड़ियाँ, झुमके, मुस्कुराहटें और मन्नतें
और एक, बस एक वादा
छोटा सा- मैं तुम्हें हमेशा खुश रखूँगा!

04 January, 2012

वीतराग!

तुमको भी एक ख़त लिखना था
लेकिन मन की सीली ऊँगली
रात की सारी चुप्पी पी कर
जरा न हिलती अपनी जगह से

जैसे तुम्हारी आँख सुनहली
मन के सब दरवाजे खोले
धूप बुलाये आँगन आँगन
जो न कहूँ वो राज़ टटोले

याद की इक कच्ची पगडण्डी
दूर कहीं जंगल में उतरे
काँधे पर ले पीत दुपट्टा
पास कहीं फगुआ रस घोले


तह करके रखती जाऊं मैं
याद के उजले उजले कागज़  
क्या रखूं क्या छोड़ के आऊं
दिल हर एक कतरे पर डोले

नन्हे से हैं, बड़े सलोने
मिटटी के कुछ टूटे बर्तन
फीकी इमली के बिच्चे कुछ
एक मन बांधे, एक मन खोले

शहर बहे काजल सा फैले
आँखों में बरसातें उतरें
माँ की गोदी माँगूँ, रोऊँ
पल समझे सब, पल चुप हो ले

धान के बिचडों सा उजाड़ कर
रोपी जाऊं दुबारा मैं
फसल कटे शहर तक जाए
चावल गमके घर घर बोले

मेरे घर की मिटटी कूके
मेरा नाम पुकारे रे
शीशम का झूला रुक जाए
कितने खाए दिल हिचकोले

ऐसे में तुम ठिठके ठिठके
करते हो मुस्काया यूँ
इन बांहों में सारी दुनिया
जो भी छुए कृष्ण रंग हो ले 

02 January, 2012

ब्लैक कॉफ़ी विथ दो शुगर क्यूब प्यार

मन की कच्ची स्लेट पर लिखा है
आँख के काजल से तुम्हारा नाम

खुली हथेली पर बनायीं हैं
मिट जाने वाली लकीरें
और मुट्ठी बंद कर दी हैं
गुलाबी होठों के बोसों से
अब कैसे जाओगे छूट के, बोलो?

आज अचानक ही हुयी बरसातें
कि जैसे तुम आये थे एक दोपहर
धूप की चम्मच से मिलाया था
ब्लैक कॉफ़ी में दो शुगर क्यूब प्यार

याद है, अलगनी पर छूट गया था
तुम्हारा फेवरिट मैरून मफलर
तब से हर जाड़ों में
तुम मेरे गले में बाँहें डाले
गुदगुदी लगाते हो मुझे
दुष्ट!

तुम्हारे लिए कुछ किताबें खरीद दूं?
कितनी फुर्सत है तुम्हें
कि मुझे पढ़ते रहते हो


सुनो!
इतनी भी दिलफरेब नहीं हैं
तुम्हारी आँखें
कि मैं बस तुम्हें लिखती रहूँ
शकल भी देखी है कभी, आईने में?


चलो!
अब न पूछो कि कहाँ
तुमने फोन पर कहा था एक दिन
फ़र्ज़ करो,
मैं तुम्हारा हाथ पकड़ कर चलता हूँ
कहीं दूर एक खुला सा मैदान हो
जहाँ से वापस आने का रास्ता हो
या वहीं ठहर जाने का...ऑप्शन
मैं उस ख्वाब से निकली ही नहीं
आज तक भी.

बातें बहुत सी हुयीं है
अब कुछ यूँ करो ना
कभी सामने आ जाओ अचानक
और जब बेहोश हो जाऊं ख़ुशी से
अपनी बांहों में थाम लेना...
बस.

अरे हाँ...जब आओगे ही
तो लौटा देना
वो बोसे जो मैंने तुम्हारे ख्वाबों में दिए थे.
गिन के पूरे के पूरे. साढ़े अट्ठारह
अठारह तुम्हारी बंद पलकों पर
और आधा बोसा
होटों पर...बस.
इससे ज्यादा मैथ मुझे नहीं आता
केस क्लोज्ड. 

मन के बाहर बारिश का शोर था...


मन के बाहर बारिश का शोर था...
बहुत सा अँधेरा था
कोहरे की तरह और कोहरे के साथ
गिरती हुयी ठंढ थी
रात का सन्नाटा था
घड़ी की टिक टिक थी 

खुले हुए बालों में अटकी
लैपटॉप से आती रोशनी
के कुछ कतरे थे

आँखों में उड़ी हुयी नींद के
कुछ उलाहने थे 
तुम्हारे दूर चले जाने के
कुछ  डरावने ख्याल थे 
तुम भूल जाओगे एक दिन 
ऐसी भोली घबराहट थी 

मन के अन्दर बस एक सवाल था
कैसा होगा तुम्हें छूना
उँगलियों की कोरों से
अहिस्ता, 
कि तुम्हारी नींद में खलल ना पड़े 

गले में प्यास की तरह अटके थे
सिर्फ तीन शब्द
I love you
I love you
I love you

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