22 September, 2009

टकराने के नए आयाम...और सिद्धांत

मैं सोच रही हूँ, कार चलाना सीख लूँ...स्कोडा फाबिया रेड पर दिल आ गया है :)
उसपर से जब कुणाल ने टेस्ट ड्राइव लिया और कहा कि मक्खन जैसी चलती है तो बस...फिसल गए हम।

अब थोड़ा इतिहास...
मैंने अपने जैसे लोग बहुत कम देखे हैं। बोले तो, एकदम नहीं, आजतक किसी से नहीं टकराई जो लगे कि मेरे दुःख दर्द से यह इंसान गुजरा हो। पटना में हमारा एक हाल और तीन कमरे का घर था, उसकी दीवारें अलबत्ता घर के बाकी लोगों के लिए स्थिर ही रहती थी, बस मुझपर खुन्नस निकालती थीं...बहुत कम ऐसा हुआ है कि मैं अपने bed से उठ कर बाहर निकली हूँ और दीवार मुझ से टकराए बिना रही हो। किस्सा कोताह ये कि दीवारें मुझे देखकर अपनी जगह छोड़ देती थीं, और कहीं और चली जाती थीं। मेरे लिए पॉइंट अ से पॉइंट बी तक जाने का एक ही रास्ता होता था, और वो रास्ता एक बार चलने के बाद बदला नहीं जा सकता था...तो पॉइंट बी जो कि दीवार का हिस्सा होता था, दीवारों की मुझसे खुन्नस के कारण अपनी जगह से हट जाता था...बस हो जाती थी टक्कर।

आम इंसानों को इस बात को समझने में जिंदगी लग जाए...मम्मी, भाई, पापा सब एक सिरे से डांटते थे कि कोई दीवार से कैसे टकरा सकता है...मैं कितना भी बोलूं कि दीवार हिली है और मुझसे टकराई है, मेरा कोई दोष नहीं...कोई मानने को तैयार नहीं। बताओ भला दीवारों पर भरोसा है, अपनी ही बेटी पर नहीं...बड़ी नाइंसाफी है।

इनकी आपसी साजिशों के कारण, मैं दीवार, दरवाजा, फ्रिज टेबल, सबसे चोट खाती रही...सारे कमबख्त मेरे रास्ते में आ के खड़े हो जाते थे मुझसे टकराने को। एक तो चोट लगती थी, उसपर डांट खाती थी कि देख कर चला करो। और मेरे दुश्मनों का नेटवर्क सिर्फ़ घर तक ही नहीं कॉलेज तक फैला था, कहीं भी गिरने टकराने की कोई आवाज होती थी, बिना देखे सब निश्चिंत रहते थे कि मेरा ही कारनामा होगा। स्टेज डेकोरेशन वगैरह से मुझे यथा सम्भव दूर रखने की कोशिश की जाती थी। इसलिए नहीं कि उन्हें मेरी बड़ी चिंता थी...मुझे आस पास देखकर सीढियाँ मचल जाती थी मुझसे टकराने को, और उनपर चढ़ कर डेकोरेशन करने वालो की साँस अटक जाती थी...या फ़िर कई बार लोग हवा में लटके भी हैं मेरे कारण। टार्ज़न के कई करतब हुए हैं हमारे ड्रामा प्रोग्राम में मैं रही हूँ तो :) ऐसा बिना स्क्रिप्ट का ड्रामा मेरे जाने के बाद लोग कितना मिस करते होंगे!

बहुत सोच समझ कर हम इस नतीजे पर पहुंचे कि हमारे लिए स्पेस और टाइम constant नहीं रहता, हमारा फ्रेम ऑफ़ रेफरेंस शायद किसी और आयाम का होता है इसलिए हम चलते कहीं हैं, पहुँचते कहीं और हैं और टकराते किसी और चीज़ से हैं। ऐसी स्थिति में जब तक खतरा हमारे ऊपर मंडरा रहा है, कोई बात नहीं...पर बाकी गरीब इंसानों का कुछ तो सोचना चाहिए इसी एहतिहात में हम आज तक कार वार से दूर ही रहे।

पर अब...दिल आ गया है...तो गाड़ी भी आ जायेगी...

सोच रही हूँ एक बार आँखें टेस्ट करवा लूँ...दिमाग टेस्ट करवाने में बहुत लफड़ा है तो उस फेर से दूर ही अच्छे हैं हम। किसी को अगर बंगलोर से ट्रान्सफर कराना है तो आप यह पोस्ट अपने बॉस को पढ़ा सकते हैं :D मैं इसी शुक्रवार से सीखने वाली हूँ...तब तक शुक्र मनाईये :)

20 September, 2009

विराम

शब्द कुछ नाराज हैं मुझसे
ठुड्डी पर हाथ रखे सोच रहे हैं
पास आयें कि नहीं
अपने संग खेलाएं कि नहीं

अजनबी हो गई हूँ मैं उनके लिए
इधर कुछ दिन से मेल बुलाकत बंद थी न
इसलिए
रूठ गए हैं, छोड़ कर चले गए हैं

अलग गुट में खड़े हैं
कि जाओ तुमसे बात नहीं करते
उनका बचपना बहुत सी कट्टियों की याद दिला रहा है
और उनकी खामोशी बहुत से अबोलों की

कुछ चीज़ें कभी नहीं बदलती...
जैसे कि झगड़ा करने का अंदाज

कुछ लोग हाथ पैर पटकते हैं
कुछ दूसरों को उठा कर पटकते हैं
कुछ चुप हो जाते हैं
और बाकी औरों को चुप करा देते हैं

मैं दूसरी कैटेगरी में से हूँ
तो कुछ लफ्जों को गुस्से में आग लगा दी
कुछ लफ्जों की चिन्दियाँ हवा में उड़ा दीं
बाकी लफ्ज़ सहमे खड़े हैं, मुंह फुलाए से

हालाँकि गुस्सा अभी उतरा नहीं है मेरा
तो फिलहाल सिर्फ़ युद्ध विराम है...
तूफ़ान के पहले की शान्ति

01 September, 2009

लाइफ को सेकंड चांस देना चाहिए

हम नॉर्मली थोड़ा जिद्दी किस्म के इंसान हैं, एक बार कुछ नापसंद हुआ तो कभी मुड़ के भी नहीं देखेंगे। कमोबेश यही अंदाज लोगों के साथ बने रिश्तों में भी होता है एक बार कुछ ख़राब लग गया तो चाहे बरसों की दोस्ती हो, एक मिनट नहीं लगती टूटने में। कहीं पढ़ा था बचपन में "Forgive your enemies, but never forget their names" बस हमने गाँठ बाँध के रख ली...मजाल किसी की जो हमसे दुश्मनी ले...

बचपन तक तो चला, कॉलेज लाइफ तक भी चला...अब सोचती हूँ इस नज़रिए पर पुनर्विचार कर लूँ। किसी की एक गलती तो माफ़ की ही जा सकती है, खास तौर पे तब जब वो इंसान रो पीट के माफ़ी मांग रहा हो( अभी तक इत्ता बड़ा दिल नहीं हुआ है की अपने ही माफ़ कर दें)।

बंगलोर आई थी तो शुरू शुरू में आसपास की जगहों का खाना ट्राय मारा था...और भैय्या हम बड़े ब्रांड कौन्शियस हैं एक बार जो पसंद आया उसमें जल्दी फेर बदल नहीं करते...और एक बार कुछ ख़राब निकला तो कभी ट्राय नहीं करेंगे दोबारा। इस श्रेणी में दुकानें आती हैं, सब्जीवाले आते हैं, रेस्तरां आते हैं...सब कुछ जो मैं ख़ुद खरीदती हूँ।

खैर कहानी थी एक रेस्तरां की, काटी ज़ोन, यहाँ जो रोल्स खाए हमने वो चिम्मड़ थे...इस शब्द का उद्गम शायद चमड़े से हुआ होगा...यानि ऐसी हालत की दांतों ने खींच खींच कर हार मान ली। उस दिन के बाद हमने कभी वहां से आर्डर नहीं किया। अब ऑफिस में अगर खाना नहीं लाये तो लंच मंगवाना पड़ता है...और आख़िर कितने दिन डोसा इडली पर जियेंगे...हालत ख़राब होने लगी, उसपर तुर्रा ये की पिज्जा और बर्गर से भी जी उब गया...हमारा टेस्ट एकदम नॉर्थ इंडियन है कुछ चटपटा, नमकीन मसालेदार टाईप खाना चाहिए हमें।

ऑफिस में सबने कहा की काटी ज़ोन का खाना अच्छा होता है...हम भला मानने वाले थे, एक साल पुराना दांतों का दर्द दुहाई देने लगता, कि ऐसे मत करो हमारे साथ, हमने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है। बस हम अड़ियल घोडे की तरह अड़ जाते...मर जायेंगे पर वहां का खाना नहीं खायेंगे।

कुछ दिनों में वाकई मरने मरने वाली हालत आ गई, कहते हैं मुश्किल में ही इंसान को जिंदगी के बड़े बड़े फलसफे सूझते हैं...सो हमें भी सूझा...कि यार कित्ती बार हमने चाहा है की एक मौका और मिलता तो क्यों न एक मौका बेचारों को भी दिया जाए...कौन जाने उन्होंने सच में कुछ किया हो। टेस्ट करने का समय भी ऐसा चुना कि रिव्यू में कोई बायस न आए...पक्षपात से हमें बड़ी चिढ़ है। कुणाल को एअरपोर्ट छोड़ने गए थे...वहीं सोचा आज इस दुःख के मौके पर खा लिया जाए भर दम...कुणाल के बिना खाना पीना तो अच्छा लगता नहीं है हमें...आने वाले एक महीने के बदले आज ही सही।

विरही नायिका के मरियल सूखे रोल में ढलने के पहले हम टुनटुन इस्टाइल खाना चाहते थे...सो भांति भांति के रोल आर्डर किए...और हमें सुखद आश्चर्य हुआ उन्होंने वाकई अपनी कायापलट करली थी। और बेचारी दिल्ली के तरसे हुए, सीपी के काटी रोल्स खाए हुए भटके दुखी प्राणी, जैसे रेगिस्तान में पानी मिल गया हो...तवा पनीर रोल्स में जो हरी चटनी लिपटी हुयी की क्या कहें...आहा...क्या चटाखेदार स्वाद...तीखा, खट्टा, और प्याज के करारे लच्छे भाई वाह...और गरमा गरम पेश हुआ था तो खुशबू जैसे दिल्ली खींच ले गई वापस और हमें मूंग के पकोड़े, चाट और जाने क्या क्या याद आने लगा।

तो हम उस दिन अपनी गलती माने की हमें बिचारों के साथ ऐसा नहीं करना चाहिए था...ऐसे में हमने एक साल कष्ट उठाया आख़िर हानि किसकी हुयी...हमारी। उन्हें क्या पता यहाँ कोई दिल्ली की भुखमरी लड़की रहती है, जिसे बस बहाना चाहिए होता है दिल्ली को याद करके बिसूरने का। बरहाल...हम अब से सेकंड चांस देने का सोच रहे हैं, किसी को भी पूरी तरह खारिज करने के पहले।

नोट: यह पोस्ट काटी ज़ोन से कड़ाही पनीर रोल आर्डर करने के बाद लिखी गई है। चूंकि हम अच्छी तरह जानते हैं कि रोल आर्डर करने के बाद रोल्स आने के पहले हम कुछ काम नहीं कर सकते...समय का इससे अच्छा सदुपयोग क्या होगा :)

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