30 January, 2009

बेतरतीब ख्याल

मुझे अँधेरा पेंट करना है, रौशनी तो अब तक कितने लोगो ने पेंट की है, कितने मौसमों की तरह...सूर्यास्त और चाँद रातों की तरह...

तुम ये क्यों नहीं कहती की मुझे खुशबू पेंट करनी है?

मैं क्यों कहूं और तुम मुझे क्यूँ बता रहे हो?

और तुम शोर पेंट क्यों नहीं करती?

जब मैं कह रही हूँ की मुझे क्या पेंट करना है तो तुम ये बाकी नाम गिनने की कोशिश क्यों कर रहे हो? तुम मेरी तरफ़ हो या अंधेरे की तरफ़...

मैं पेंटिंग हूँ, मुझे किसी की तरफ़ होने की क्या जरूरत है।

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क्या लेखक का कुछ भी अपना नहीं होता? इतना अपना की उसे किसी के साथ बांटने की इच्छा न हो ? जब तक ख्यालों को शब्द नहीं मिले हैं वह लेखक के हैं। शब्द क्या हैं? एक समाज से मान्य अर्थ की पुष्टि के यंत्र ...शब्दों से परे जो सोच है वही सत्य है। होना क्या है...existence?

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वो कौन से लोग होते hain जो माचिस की डिब्बियों पर साइन करते हैं, या १० रुपये के नोट पर अपना नाम और नम्बर छोड़ देते हैं।

मैं भी किसी पत्थर पर तुम्हारा नाम लिखना चाहती थी, बताओ न अगर मैंने लिखा होता तो क्या तुम पढ़ते? और अगर तुम पढ़ते तो क्या तुम्हें मालूम होता कि मैंने लिखा है?

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कल रात ऐसे ही कागज पर कलम घिस रही थी...बहुत दिन बाद कलम पकड़ी थी, अच्छा लग रहा था लिखना, हालाँकि लिखा हुआ खास पसंद नहीं आया. ऐसे कि बेतरतीब ख्यालों के टुकड़े हैं. कभी कभी यूँ ही ख्याल समेटना अच्छा लगता है.
PS: आज वेबदुनिया पर एक आर्टिकल आई है मेरे बारे में...आप उसे यहाँ पढ़ सकते हैं

29 January, 2009

एक झगडा रोजाना...

"मैं बाईक तुमसे अच्छा चलाती हूँ"

"जानता हूँ"

"तो मुझे ही चलाने दो न, मैं नहीं बैठूंगी तुम्हारे पीछे...तुम्हें क्या पीछे बैठने में शर्म आती है"

"हाँ आती है, मैं किसी लड़की के पीछे नहीं बैठ सकता"

"और ये जो लड़कियों की बाईक चलते हो, उससे तुम्हारी शान नहीं घटती...कोई भी देख कर कहेगा की मेरी ही गाड़ी में मुझे भगाए ले जा रहे हो...भला ६ फुट का होते हुए ये पिद्दी सी गाड़ी क्यों चलाते हो...तुमपर बिल्कुल सूट नहीं करता।"

"तुम्हारे साथ पीछे बैठूं, मेरा दिमाग ख़राब हुआ है क्या...आख़िर एक्सपेरिएंस भी कोई चीज़ होती है, सिर्फ़ जानने से क्या होता है, कितने दिन हुए हैं तुम्हें अभी सड़क पर उतरे हुए, एक बिल्ली रस्ते में आ जाए तो ऐसे ब्रेक मरती हो की भगवान् बचाए"

"वाह वाह तुम्हें भगवन बचाए और बेचारी बिल्ली को...उसको तो भगवान बचने नहीं आएगा न उस बेचारी के लिए तो मुझे ही ब्रेक मारने पड़ेंगे। पता है बिल्ली को मरना ब्रह्महत्या के इतना बड़ा पाप है...घोर कुम्भीपाक नरक मिलता है उससे, और तो और सोने की बिल्ली बनवा कर दान करनी पड़ती है, वो भी बिल्ली के वजन जितनी"

"तुम्हें ये बातें कहाँ से सूझती हैं, दिमाग के अन्दर डायलोग फैक्ट्री फिट करा रखी है...बातें सुनूँ तुम्हारी की सड़क पर ध्यान दूँ...फ़िर पटक दूँगा तो बोलोगी सबको"

"वाह वाह उल्टा चोर कोतवाल को डांटे, एक तो गिराओगे और फ़िर हल्ला करोगे की किसी को बोलना नहीं...मेरे जैसी बेवकूफ लड़की मिल गई है न, अपनी नई नई गर्ल्फ़्रेन्ड को बाईक से गिरा दे, ऐसे लड़के के साथ कौन घूमेगी बताओ। तू बैठ एक दिन पीछे, मैं तुझे गिरूंगी...हद होती है, कभी मुझे चलने ही नहीं देता...अगर हर बार तू ही चलाएगा तो मैं सीखूंगी कैसे...डरपोक कहीं का"

"कुछ दिन रुक जा...इलेक्शन आ रहे हैं, कोई न कोई पार्टी चक्का जाम कराएगी ही , उस दिन पूरी सड़क खली रहेगी...तू आराम से चला लेना तब"

"हाँ हाँ तू तो चाहता ही यही है ऐसा कुछ हो और मेरी गाड़ी का कचूमर बन जाए...न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी...पर ये मत भूल मेरा ड्राइविंग लाइसेंस मुझे तेरी बाईक चलने की पेर्मिस्सिओं देता है...देखना एक दिन फुर्र्र हो जाउंगी, तेरी बाईक उठा के...फ़िर ढूंढते रहना"

"मैं भला क्यों ढूँढने लगा...तू और बाईक दोनों आफत से एक साथ छुटकारा...वैसे बता के भागना वरना मैं सोचूंगा ट्रैफिक वाले उठा कर ले गए।"

"हवा पियो...एक दिन मैं तुम्हें पक्का गिरा दूंगी....देख लेना"

(dialog लिखने की practice कर रही हूँ...स्क्रिप्ट के लिए...यहाँ छापने का मन किया...डाल दिया...आपको गरियाने का मन कर रहा है :) गरिया लीजिये)

कभी कभी हम कुछ चीज़ों को बड़ी सीरियसली लेने लगते हैं, ऐसे में उसे तोड़ने के लिए कुछ उट पटांग तो करना ही पड़ता है...इसलिए ये पोस्ट

सवालों के दरमियाँ

I believe freedom is my right to make a few mistakes of my own and learn from them।


मंगलौर में जो हुआ, शर्मनाक है...अख़बारों ने चीख चीख कर कहा ये तालिबान का राज है वगैरह वगैरह...और इतने हो हंगामे के बाद कुछ गिरफ्तारियां हुयी हैं।
हम कहने को तो आजाद हवा में साँस लेते हैं, मगर क्या ये सच में आजादी है? जरा सा भी लीक से अलग हट कर चलिए तो दिखेगा कि सारी दुनिया विरोध में खड़ी है हर कोशिश की जायेगी आपको रास्ते पर लाने की, खास तौर से अगर आप एक महिला हैं तो।

एक लड़की पर हज़ार बंदिशें पहले तो उसके परिवार के तरफ़ से लगती हैं, उसके बाद खड़ा हो जाता है समाज और इन सब बंधनों को ठुकरा के अगर कोई अपने हिसाब से जीना चाहता है तो ये स्वयंसिद्ध ठेकेदार हैं जो जिम्मेदारी उठा लेते हैं। नैतिकता और सभ्यता के नाम पर गुंडागर्दी होती है सरेआम...और ऐसे माहौल में हम कुछ महीनो में वोट देने वाले हैं।


आज सुबह पेपर में ख़बर आई कि एक बच्चे कि बलि दी जाने वाली थी पर ऍन मौके पर वहां से गुजरते कुछ लोगो ने आवाजें सुनी और उसे बचा लिया गया...और बलि भी क्यों, गड़ा हुआ खजाना पाने के लिए! कभी कभी तो लगता है जाने हम किस सदी में जी रहे हैं. आज भी कई पुरानी मान्यताएं हैं जिनका कोई आधार नहीं है, सिर्फ़ इसलिए जीवित है कि सवाल उठाने की जहमत कोई नहीं करता.
मुझे आज एक आर्टिकल बड़ी पसंद आई...उसमें सिर्फ़ सवाल पूछे गए थे...सरकार से, पुलिस से, और उस संगठन से...जानती हूँ इन सवालों का जवाब कभी नहीं आएगा फ़िर भी देख कर सुकून मिलता है कि कोई सवाल तो कर रहा है। हमारे लिए जरूरी है कि जो जैसा होता है उसे वैसे ही स्वीकारें नहीं, सवाल हमारी असहमति का पहला कदम है.


पर हम बच्चो से तक इसलिए चिढ जाते हैं कि वो सवाल बहुत करते हैं...क्यों कैसे किसलिए कब तक ... RTI एक्ट एक ऐसे ही सवाल करने वाले लोगों को राहत देता है। कुछ सवाल बाकियों से और एक हमारा ख़ुद से...

हम इस बदलाव के लिए क्या कर रहे हैं?

27 January, 2009

ख्वाहिशों का आँगन

ख्वाहिशों के आँगन में
एक पौधा मेरा भी...

दूसरे महले पर तुम्हारा कमरा है
उसकी खिड़की तक पहुंचना है
रात को तुम्हारे ख्वाबों में
खुशबू बन आने के लिए...

सूरज से झगडा कर
तुम्हारी आंखों पर
एक भीना परदा डालने को
उस खिड़की पर फूलना है मुझे...

बारिश की फुहार
मुझे छू कर ही तुम तक पहुंचे
उस हलकी बहती हवा में
यूँ ही झूमना है मुझे...

जाडों में तुम्हारे साथ
थोडी धूप तापनी है मुझको भी
गर्मियों में तुम्हारे लिए
वो चाँद बुलाना है...
ये ख्वाहिशों का आँगन क्या
तुम्हें जीने का बहाना है...

25 January, 2009

मुकम्मल


कोई तो बात होगी तुममें

जो तुमसे मिलकर...

जिंदगी मुकम्मल लगने लगी


हाशिये पर बिखरे पड़े अल्फाज़

खतों की मानिंद सुकून देने लगे

जिस रोज़ तुमने इन पन्नो को हाथ में उठाया


वो आधी नींद की बेहोशी में खटके से उठना

रुक गया है...

मैं पुरसुकून ख्वाबों के आगोश में ही जागती हूँ


वो लब जिनपर आंसू थामे रहते थे

तेरे नाम की सरगोशी से

मुस्कुराने लगे हैं...


तुममें ऐसी कितनी बातें हैं जान...

कि तुमसे मिलकर

जिंदगी मुकम्मल लगने लगी है।






24 January, 2009

किसी मोड़ पर



बहुत जरूरी है कि हमें याद रहे

भूलना...

ताकि वक़्त वक़्त पर

हम एक दूसरे को उलाहना दे सकें

पैमानों में नाप सकें प्यार को

और हिसाब लगा कर कह सकें

कि किसका प्यार ज्यादा है...


बहुत जरूरी है

किसी मोड़ पर बिछड़ना

ताकि फ़िर किसी राह पर

मिलने कि उम्मीद बरक़रार रहे

और हम अपने कदम दर कदम बढ़ते रहे

चाहे उन क़दमों से फासले ही क्यों न बढें


बहुत जरूरी है

अपने दरमयान एक दूरी रखना

अपने वजूद को जिन्दा रखने के लिए

क्योंकि अगर जिन्दा रहेंगे हम दोनों

तभी to रहेगा प्यार...हमारे बीच

अगर ये बीच की दूरी ही न रहे

प्यार का वजूद भी नहीं होगा...


इसलिए मेरे हमसफ़र
आज दो नई राहें चुनते हैं
और उनपर बढ़ते हैं

ताकि अगर कहीं हम आगे जा कर मिले

तो हमारे पास दो कहानियाँ होंगी

और अगर हम बहुत दूर चले गए

तो वापस आ जायेंगे

बस हमें अपने प्यार पर भरोसा रखना होगा

कि हम लौट कर आ सकें

और अगर कोई पहले पहुँच जाए

तो इंतज़ार करे

प्यार में सबसे खूबसूरत

इंतज़ार ही तो होता है...नहीं?

22 January, 2009

बंगलोर फ़िल्म फेस्टिवल...और हम :)


कल बंगलोर फ़िल्म फेस्टिवल का समापन था .कुछ अपरिहार्य कारणों ने मुझे रोक दिया...वरना मैं जरूर जाती। गुलाबी टाकीस देखने का मेरा बड़ा मन था। और कुछ और भी अच्छी फिल्में आ रही थी ।

बरहाल...वही होता है जो मंजूरे खुदा होता है। लालबाग के पास विज़न सिनेमा में फेस्टिवल चल रहा था। रजिस्ट्रेशन फी ५०० रुपये थी रजिस्टर होने के बाद एक आई कार्ड और एक बुकलेट मिली जिसमें प्रर्दशित होने वाली सभी फिल्मो के बारे में जानकारी थी...खास तौर से कौन से अवार्ड्स मिले वगैरह और कहानी के बारे में थोड़ा आईडिया...ये काफ़ी अच्छी था क्योंकि एक साथ दो फिल्में प्रर्दशित हो रही थी, तो ये निश्चय करना की कौन सी देखूँ आसान हो जाता था।


मुझे आश्चर्य लगा ये देखकर कि हॉल लगभग हाउसफुल था, मुश्किल से कुछ ही सीट खाली होंगी। मैंने नहीं सोचा था कि बंगलोर में ऐसे फिल्मों के लिए भी दर्शक मौजूद हैं। ये मेरा किसी फ़िल्म फेस्टिवल का पहला अनुभव था, और पहली बार अकेले फ़िल्म देखने का भी। दोनों अनुभव अच्छे रहे मेरे :) तो मैं निश्चिंत हूँ, कि फ़िर से कहीं ऐसा हो तो मैं जा सकती हूँ। फ़िल्म देखने वाले लोगों में महिलाएं भी बहुत थी और बाकी की भीड़ में कॉलेज स्टुडेंट से लेकर वयोवृद्ध पुरूष और महिलाएं भी दिखी। इतने सारे लोगों के बीच होना भी अच्छा लगा। बहुत दिन बाद फ़िर से लगा कि IIMC के दिन लौट आए हैं, जैसे इस वक्त कोई फ़िल्म देख कर निकलते थे तो लगता था कि कुछ तो अलग है...ये सोच कर भी मज़ा आता था कि इन लोगो के दिमाग में क्या चल रहा होगा।

आज एक फिल की चर्चा करना चाहूंगी...फ़िल्म बंगलादेश की थी...नाम था रुपान्तर. फ़िल्म में एक डाइरेक्टर एकलव्य पर एक फ़िल्म बना रहा है, गुरुदक्षिणा, कहानी जैसा कि हम सभी जानते हैं महाभारत काल की है और द्रोणाचार्य के एकलव्य के अंगूठे को गुरुदक्षिणा के रूप में मांगने की है. डायरेक्टर शूट करने एक संथाल गाँव के पास की लोकेशन पर जाता है, वहां शूटिंग देखने गाँव से कई लोग आए हुए हैं. पर जब शूटिंग शुरू होती है और एकलव्य तीर चलाता है तो लोग प्रतिरोध करते हैं और कहते हैं कि उसका तीर पकड़ने का तरीका ग़लत है, तीर को अंगूठे और पहली अंगुली नहीं, पहली ऊँगली और बीच की ऊँगली से पकड़ते हैं. यह सुनकर डायरेक्टर चकित होता है और इस बारे में रिसर्च करता है. वह पाता है कि वाकई तीरंदाजी में अंगूठे का कोई काम ही नहीं है. इससे उसकी पूरी कहानी ही गडबडाने लगती है...और शूटिंग रुकने वाली होती है.

शाम को इसी समस्या पर यूनिट के लोग भी मिल कर चर्चा करते हैं , पुराने ग्रंथों में भी कहीं भी तीर को कैसे पकड़ते हैं के बारे में जानकारी नहीं है. इस चर्चा के दौरान एक लड़की सुझाव देती है कि हो सकता है समय के साथ तीरंदाजी करने के तरीकों में बदलाव आया हो, उसकी ये बात निर्देशक को ठीक लगती है और वह उसपर सोचने लगता है. और आख़िर में इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि हो सकता है तीरंदाजी वक्त के साथ बदली हो. इसी बदलाव को वह फ़िल्म का हिस्सा बनाता है...कहानी ऐसे बढती है...

जब एकलव्य के बाकी साथियों को पता चला कि द्रोणाचार्य ने एकलव्य का अंगूठा गुरुदक्षिणा में लिया है और अब एकलव्य तीर नहीं चला सकता तो वो निर्णय लेते हैं कि वो भी तीर धनुष नहीं उठाएंगे. इस बात पर एकलव्य उन्हीं रोकता है और वो वचन देते हैं कि वो उसकी आज्ञा का पालन करेंगे. यहीं पर बाकी के भील निर्णय लेते हैं कि वो भी बिना अंगूठे का इस्तेमाल किए तीर चलाएंगे. उनके लिए ये बहुत मुश्किल होता है, वो बार बार असफल होते हैं...पर उनका कहना है कि अगर हम असफल हुए तो हमारे बेटे कोशिश करेंगे अगर वो भी असफल हुए तो भी आने वाली पीढियां इसी तरह से तीरंदाजी करेंगी, अंगूठे का प्रयोग वर्जित होगा.

इतिहास में कहीं भी दर्ज नहीं है कि पहली बार सफलता किसे मिली, पर उनकी कोशिशों के कारण आज एकलव्य के साथ हुए अन्याय का बदला ले लिया गया है. और तीरंदाजी में कहीं भी अंगूठे का इस्तेमाल नहीं होता.

कहानी बहुत अलग सी लगी इसमें निर्देशक कहता भी है...कि वास्तव में क्या हुआ ये पता करना इतिहासकारों का काम है...पर मैं एक कल्पना तो दिखा ही सकता हूँ. यह एक फ़िल्म में फ़िल्म की शूटिंग है. पात्र और उनकी एक्टिंग बिल्कुल वास्तविक लगती है. कहानी की रफ़्तार थोडी धीमी है पर इसे बहुत बेहतरीन तरीके से इस्तेमाल किया गया है.

बॉलीवुड फिल्मो की चमक दमक के बाद ऐसी यथार्थपरक फ़िल्म देखना एक बेहद सुखद अनुभव रहा. अगर आपको भी ये फ़िल्म किसी स्टोर पर मिलती है तो देखें, वाकई अच्छी है.

21 January, 2009

दर्द-ऐ लैपटॉप

मेरा लैपटॉप आजकल दर्दे दिल दर्दे जिगर हो गया है...बिल्कुल निर्मोही है, बिल्कुल ख्याल नहीं करता की बिना ब्लॉग्गिंग किए मेरा क्या हाल होगा। सारे webpages खोलता है बस ब्लॉगर देखकर ऐसे भड़क जाता है जैसे लाल कपड़ा देखकर सांड...ऐसा हैन्ग होता है जैसे कविता सुनकर चने के झाड़ पर चढा हुआ कवि...बस वही अटक के रह जाता है, नीचे उतरने का नाम ही नहीं लेता।

कितने मान मनुहार करूँ, बाज नहीं आता...सारे घर में झाडू पोछा हो या नहीं इसका स्क्रीन हमेशा साफ़ रखती हूँ, और तो और ब्रश लेकर keypad तक साफ़ करती हूँ...इतने प्यार से अपने डेस्कटॉप को रखा होता तो गुलामी करता मेरी और ये कमबख्त भाव खा रहा है।

उसपर दिल है की मानता नहीं...कितनी बार सोचा कि कॉपी पर लिख कर काम चला लूँ, आख़िर कलम पकड़े बरसों बीत जाते हैं, डायरी बस देखती है और आहें भरती है, उसे अपने हालात का पूरा अहसास है, बेचारी अब तो शिकायत भी नहीं करती। और एक जमाना हुआ करता था जब हमारी जान रहती थी उन जर्द पड़े पीले पन्नों में। कितने लोग ये सोचते सोचते उम्र गुजर देते हैं कि आख़िर उस डायरी में था क्या...अब पीडी को ही देख लीजिये और सब जानते हैं कि डायरी उड़ा कर पढने में जो मज़ा है वो लैपटॉप का पासवर्ड क्रैक कर के पढने में कहाँ। और हम जो ये भी नहीं जानते कि लड़कियां हिडेन फाइल बना कर अपने दिल कि बात लिखती हैं या नहीं...या पर्सनल ब्लॉग पर...इसके बारे में शायद हमें पता है।

इस मुश्किल से पिछली बार पाला पड़ा था तो लम्बी चौडी मुहिम छेडी थी बड़ी मुश्किल से टेम्पलेट बदल वदल के हालत कुछ काबू में आए थे...पर इस बार मुझे कोई उपरी चक्कर लगता है।

बरहाल मैंने कुछ उपाय सोचे हैं इस समस्या से निजात पाने को...आपको जो सही लगे कृपया वोट करें, जिस अन्स्वेर को मक्सिमुम वोट मिलेंगे हम वही करेंगे। आप अपने उपाय भी दे सकते हैं...कौन जाने किस उपाय से ये ब्लॉग्गिंग ठीक से होने लगे...

तो ये रहे ऑप्शंस
  1. बाल्टी में गुनगुना पानी लें, उसमें दो चम्मच सर्फ़ एक्सेल डाल दें अब इसमें लैपटॉप को तब तक डुबाये रखें जब तक उसमें लहरें न उठने लगें। ध्यान रहे लैपटॉप पूरी तरह पानी के अन्दर होना चाहिए।
  2. लैपटॉप को बालकनी से बन्जी जम्पिंग कराएं। इसके लिए आप लैपटॉप चार्जर कॉर्ड का भी इस्तेमाल कर सकते हैं वरना अलगनी पर की रस्सी भी चलेगी।
  3. लैपटॉप के ऊपर नीम्बू और मिर्चें लटकाएं।
  4. (और ये साउथ इंडियन तरीका बंगलोर आने के बाद inspired होकर )कीबोर्ड पर एक नारियल फोडें
  5. नया लैपटॉप खरीद लें :)
personally मुझे ५ नम्बर पसंद है :)
तब तक के लिए....इंतज़ार इंतज़ार और इंतज़ार :D

20 January, 2009

ख़त जो लिखे नहीं गए...



दोपहर के लगभग तीन बजे


डाकिया के आने का वक्त होता था


मैं रोज इंतज़ार करती थी


जाने कितने ख़त आने थे मुझे


अब uske रोज आने का सिलसिला तो ख़त्म हो गया है


इंतज़ार अब भी बदस्तूर जारी है...

13 January, 2009

दरख्वास्त

कहाँ दरख्वास्त दूँ...

खुदा के पास

मैं एक कतरा आवाज के लिए तरस रही हूँ

ऐसी खामोशियाँ क्यों लिख दी हैं

तकदीर शायद एक पन्ना है

फ़िल्म की तरह नहीं लिखी जाती

इसलिए कोई आवाज नहीं है...

बस एक खामोशी है

ए खुदा

मैं एक आवाज के कतरे के लिए तरस रही हूँ

तुम कब सुनोगे मेरी आवाज़?

06 January, 2009

मायका

एक शब्द है
जो माँ से बना है...मायका

सोचती हूँ
जब माँ ही नहीं है
तो मायका भी नहीं
तो क्या छूटेगा?

फ़िर दर्द क्यों
क्या शहर भी कभी मायका हो सकता है?
अगर चंदा मामा हो सकता है
तो...शायद हाँ

कुछ रिश्ते
अजन्मे होते हैं
जैसा उस शहर के साथ
जिसने इस बिन माँ की बच्ची को
सीने से लगाया...

मेरे शहर
तुम मेरे क्या हो?

05 January, 2009

समय के परे

साल के आने के एक दिन पहले
कुछ पुराने रिश्तों को एल्बम से उठाया
थोडी धूल लगी थी, झाड़ दी
और फ़िर से एल्बम उसी ताक पर रख दी
फ़िर जाने कितने सालों की धूल जमने के लिए...
कुछ रिश्ते ऐसे भी हैं...जिनमें बस मैं हूँ
साथ के लोग जाने कब का हाथ छोड़ कर जा चुके हैं
फ़िर भी
मैं तो हूँ...
और जब तक मैं हूँ...ये रिश्ते जिन्दा हैं।


नए साल में
कुछ नए रिश्ते
जाने कब हाथ पकड़ कर चलने लगे
मेरी मुस्कराहट में हंसने लगे
मेरे गीतों में ताल देने लगे
मेरे साथ हवाओं में उड़ने लगे

पुराने और नए साल के बीच
एक लम्हा था
जो न नया था न पुराना
उस लम्हे में मैंने तुमको देखा
और जाना...फ़िर से
तुम
न आए थे, न जाओगे
तुम बस हो
मुझमें...हममें।



मुझसे इतना प्यार करने का शुक्रिया...
तुमने कहा था न, इस साल मैंने तुम्हें कोई तोहफा नहीं दिया...साल की पहली पोस्ट तुम्हारे लिए.

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