10 April, 2008

खिलखिलाहट

मिल जाए तो सारा आसमाँ भी थोड़ा लगता है
टुकड़े टुकड़े चिन्दियों में जोड़ा लगता है
मैं भी थोड़ी थोड़ी सी अधूरी लगती हूँ
तू भी थोड़ा थोड़ा सा अधूरा लगता है

थोड़ा थोड़ा आसमाँ मैं जेब में रखती हूँ
थोड़ा थोड़ा आसमाँ तेरी मुट्ठी से लेकर
और थोडी सी जमीं पर घर बनाती हूँ
अपना सर किसी शाम तेरे काँधे पे रखकर

एक टुकड़ा आसमाँ घर लौटते हुए
रोज फूलों में छुपाकर तुम लाते हो
एक टुकड़ा आसमाँ हर शाम मैं भी तो
चाय की प्याली में भर कर छत पर लाती हूँ

नींद के आगोश में तुम रात होते हो
मैं धीरे धीरे कर के हर टुकड़ा निकलती हूँ
और यादों के धागों से सिलती हूँ चुप चाप
थोड़ा मेरा और थोड़ा तुम्हारा आसमाँ

इसमें खिलखिलाहट का एक चाँद टाँकती हूँ
और आंसू के कुछ तारों से सजाती हूँ
हर रात पहले से थोड़ा बड़ा आसमाँ
खिड़की और दरवाजे पे टाँग आती हूँ

फ़िर भूलकर ये सारे आसमाँ का किस्सा
चैन से तेरी बाहों में आकर सो जाती हूँ

2 comments:

  1. रात को आसमा से चाँद निकालके
    अपने पास आंचल में सुलाना और सुबह फिर
    आसमान में टांकना -बड़ा अच्छा लगता है

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