13 August, 2007

"तेरी आंखें चुप चुप हो गयी हैं, पहले चिल्लाती रहती थीं"
इसलिये शायद मैं प्यार करती हूँ तुमसे...क्यों तुम मुझे वैसे पढ़ते हो जैसे मैं हूँ...शब्द भी वही होते हैं,जरा भी इधर उधर नहीं होते। ऐसा जब पहली बार हुआ था तभी मुझे पहली बार लगा था की मैं तुम्हारे साथ रहना चाहती हूँ एक या दो दिन नहीं..अपनी पूरी जिंदगी।

जिंदगी से समझौते करते करते मैं थक गयी हूँ, हर बार अपने आप को समझा लेती हूँ...पर अब नहीं हो पता है। मेरा इतना रोने का मन कर रह है बता नहीं सकती। मुझे नहीं पता है मैं अपनी जिंदगी का क्या करुँगी...कहने का मतलब ये की मुझमें जो थोड़ी सी जिंदगी बची है उसका क्या क्या करुँगी। हम कब मिलेंगे कैसे मिलेंगे पता नहीं है। उस ऑफिस जाने में दिन भर तो ऐसे ही निकल जाएगा और मैं अब कुछ सोच नहीं पाती हूँ और मुझे कुछ समझ नहीं आता की मुझे क्या करना चाहिऐ कैसे करना चाहिऐ।

माँ नहीं मानेगी तो मैं क्या करुँगी? ये सवाल बेमानी है क्योंकि मैं जानती हूँ की मा कभी नहीं मानेगी। घर के सदस्यों ने पहले की काफी कुछ सुनाया है उसे, मेरा क्या हक बनता है की मैं उसे बाहर वालो से भी बात सुनवाउँ। पापा भी दुःखी हैं। ऐसा ही क्या जरुरी है है मेरा जीना...मर ही जाऊंगी कौन सा आस्मान टूट पड़ेगा...

हर बार किसी ना किसी मुश्किल से थक गयी हूँ...अभी भी नानी का ऑपरेशन होना है, फिर घर के सारे लोग यहीं दिल्ली में ...मैं कैसे कह सकूंगी रे तुझे मुझे पता नहीं।

अभी का बस यही पता है की कुछ नही pata

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